प्रेमचंद जी को कहानी का सम्राट कहा गया है उन्होंने अपने कहानी के माध्यम से उस समाज को छुआ जिस समाज से सभी दूरी बना कर रहा करते थे जो सदैव हास्य स्थिति पर थे जिनका सदैव दमन किया जाता था उनका शोषण किया जाता था उनकी लगभग समस्त कहानियां उस समाज की जिजीविषा को प्रस्तुत करती है। प्रस्तुत लेख में प्रेमचंद जी के साहित्य पर संक्षिप्त जानकारी हासिल करेंगे।
प्रेमचंद साहित्य पर प्रकाश | प्रेमचंद के साहित्य पर संछिप्त परिचय
हिंदी कहानियों के विकास के इतिहास में प्रेमचंद का आवागमन एक महत्वपूर्ण घटना है। इनकी कहानियों में समाज का पूरा ‘परिवेश’ उसकी ‘कुरूपता’ और ‘असमानता’, ‘छुआछूत’, ‘शोषण’ की विभीषिका कमजोर वर्ग और स्त्रियों का दमन आदि वास्तविकता प्रकट हुई है। उन्होंने सामान्य आदमी का जीवन अत्यंत निकट से देखा था तथा खुद उस जिंदगी को भोगा भी था। धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों पर भी उन्होंने तीव्र व्यंगय किया।
प्रेमचंद के बारे में राजेंद्र यादव ने लिखा है ‘वेश्या’, ‘अछूत’, ‘किसान’, ‘मजदूर’, ‘जमींदार’, ‘सरकारी अफसर’, ‘अध्यापक’, ‘नेता’, ‘क्लर्क’, समाज के प्रायः हर वर्ग पर प्रेमचंद ने कहानियां लिखी है और राष्ट्रीय चेतना के अंतर्गत विशेष उत्साह आदि से लिखा है ,
मगर मूलतः उनकी समस्या तत्कालीन दृष्टि से वांछनीय – अवांछनीय शुभ-अशुभ के चुनाव की है।
प्रेमचंद साहित्य में समस्या का हल उसके साथ ही देते हैं।
राष्ट्रीय चेतना में प्रेमचंद गांधी से प्रभावित थे ,तो आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए वे साम्यवाद का सहारा लेते हैं। प्रारंभिक कहानियों में प्रेमचंद पूर्णता आदर्शवादी दिखाई देते हैं। ‘बड़े घर की बेटी’, ‘पंच परमेश्वर’, ‘नमक का दारोगा’, ‘उपदेश’ आदि कहानियों में ‘कर्तव्य’,’त्याग’, ‘प्रेम’, ‘न्याय’, ‘मित्रता’, ‘देश सेवा’ आदि प्रतिष्ठित हुई है।
बाद में कहानियों में आदर्शवाद यथार्थ में बदल जाता है ‘पूस की रात’,’बूढ़ी काकी’, ‘ दूध का दाम’, ‘सद्गति’ कहानियों में जीवन का नग्नतम यथार्थ दिखाई देता है।
उनके तथा उनके युग की कहानी साहित्य पर तत्कालीन राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों के प्रभाव स्पष्ट दिखाई देते हैं।
1936 में आयोजित लखनऊ के अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफ़िल सजाना और मनोरंजन करना नहीं है। उनका दर्जा इतना ना गिराइए। वह देश भक्ति और राजनीतिक के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उससे आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।
प्रेमचंद की रचनाओं में समाज की सामाजिक आर्थिक विसंगतियों को तो उजागर किया ही है, शायद पहली बार ‘शोषित’, ‘दलित’ एवं ‘गरीब वर्ग’ को नायकत्व प्रदान किया इसमें मुख्य रूप से किसान मजदूर और स्त्रियां है। प्रेमचंद की रचनाओं में किसानों की दयनीय स्थिति स्त्रियों की व्यवस्था और मजदूरों के दमन चक्र में पिसते किसानों के चित्र उनकी अधिकांश कृतियों में मिल जायेंगे ‘गोदान’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’ जैसे उपन्यास तथा ‘पुश की रात’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘कफन’ जैसी अनेक कहानियों में तत्कालीन ग्रामीण समाज का यथार्थ उजागर हो गया है।
– प्रेमचंद क्रांतिकारी नहीं सुधार के समर्थक थे।
‘गोदान’ प्रेमचंद का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय किसान की पतोन्मुख स्थिति के लिए शोषकों के साथ-साथ सामाजिक रूढ़ियों , अंधविश्वासों और दुराग्रहों को जिम्मेदार माना है।
एक और समाज में जड़ता व्याप्त थी तो दूसरी ओर जमींदार, साहूकार और सरकार का शोषण और दमन – चक्र।
प्रेमचंद की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि इस उपन्यास में यह है कि उन्होंने बदलते हुए यथार्थ के परिपेक्ष में चीजों को समझाने की चेष्टा की है।
छोटे व गरीब किसान कि मजदूर बन जाने की विवशता इस उपन्यास की उपलब्धि है। जमींदार के शोषण के साथ-साथ प्रेमचंद ने सूदखोर ,साहूकार और धर्म के ठेकेदारों के असली रूप को उजागर करने की कोशिश की है।
‘गोदान’ किसान जीवन की त्रासदी का महाकाव्य है। उपन्यास का अंत होते – होते पाठक के मन में होरी के प्रति करुणा और सहानुभूति एवं जमींदार , साहूकार और ब्राह्मणवाद के प्रति क्षोभ और घृणा का भाव पैदा होता है।
भाग्यवाद ने भारतीय किसान को यथास्थितिवादी होने के लिए मजबूर कर दिया है।
स्त्री को वे भारतीय परिपेक्ष्य में ही देखना चाहते हैं शायद इसलिए ‘गोदान’ की ‘मालती’ में सेवा धर्म का बोध उत्पन्न कर उसे भारतीय संस्कृति के अनुरूप स्त्री का रूप दे देते हैं।
उन्होंने आर्य समाज की प्रशंसा की है , जिसने स्त्री शिक्षा और छोटों द्वारा भेदभाव निर्मूलन अंधविश्वास एवं धार्मिक अत्याचारों का सबसे पहले विरोध किया था।
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निष्कर्ष –
प्रेमचंद जी का संपूर्ण लेख पर दृष्टिपात किया जाए तो स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से उस वर्ग को प्रमुखता दी है। उस वर्ग को नायक बनाया है जिस वर्ग का दमन सदैव उच्च वर्ग के लोग किया करते थे। उनकी दासता का कारण वह स्वयं उच्च वर्ग हुआ करते थे।
गरीबी और अमीरी के बीच की खाई को उन्होंने बड़े स्पष्ट रूप से देखा था। एक साधारण कृषक को मजदूर बनते हुए उन्होंने अनुभव किया था। उनका संपूर्ण साहित्य उसी व्यवस्था को उजागर करता हुआ प्रतीत होता है।
साहित्य को समाज का दर्पण बनाने के लिए उन्होंने अधिक प्रयास किया साहित्य को केवल मनोरंजन का आधार बनकर नहीं रहने देना चाहते थे इसलिए उन्होंने लेखकों से विशेष अनुरोध किया कि वह अपने साहित्य को समाज कल्याण की ओर मोड़ें।
I love to read Premchand stories and novels in Hindi language