भारतीय नववर्ष | Indians happy new year
नव वर्ष की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान आरंभ हो गया है।
यह नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं। है अपना यह त्यौहार नहीं।
है अपनी यह तो रीत नहीं। है अपना यह व्यवहार नहीं।
धरा ठिठुरती है सर्दी से
आकाश में कोहरा गहरा है।
बाग़ बाज़ारों की सरहद पर
सर्द हवा का पहरा है।
सूना है प्रकृति का आँगन
कुछ रंग नहीं , उमंग नहीं।
हर कोई है घर में दुबका हुआ
नव वर्ष का यह कोई ढंग नहीं।
चंद महिने अभी इंतज़ार करो
निज मन में तनिक विचार करो।
नये साल में नया कुछ हो तो सही
क्यों नक़ल में सारी अक्ल बही।
उल्लास मंद है जन -मन का
आयी है अभी बहार नहीं।
यह नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं। है अपना यह त्यौहार नहीं।
यह धुंध कुहासा छंटने दो
रातों का राज्य सिमटने दो।
प्रकृति का रूप निखरने दो
फागुन का रंग बिखरने दो।
प्रकृति दुल्हन का रूप धरे
जब स्नेह–सुधा बरसायेगी।
शस्य–श्यामला धरती माता
घर-घर खुशहाली लायेगी।
तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि
नव वर्ष मनाया जायेगा।
आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर
जय गान सुनाया जायेगा।
युक्ति–प्रमाण से स्वयंसिद्ध
नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध।
आर्यों की कीर्ति सदा-सदा
नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।
अनमोल विरासत के धनिकों को
चाहिये कोई उधार नहीं।
यह नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं है अपना यह त्यौहार नहीं।
है अपनी यह तो रीत नहीं। है अपना यह त्यौहार नहीं ।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की इस कविता को पढ़ने के बाद अहसास होता है कि वास्तव हमें अपनी संस्कृति को संरक्षित करने की आवश्यकता है।
यह नववर्ष हिंदू या सनातन धर्म का नव वर्ष नहीं है।
यह तो पाश्चात्य दुनिया का नववर्ष है जिसे हम बड़े हर्ष उल्लास से मना रहे हैं।
हम यह जानने का प्रयास भी नहीं करते कि यह नववर्ष क्यों मना रहे हैं , किस लिए मना रहे हैं , जबकि हमारा नव वर्ष “चैत्र शुक्ल पक्ष प्रथम तिथि” से मनाया जाता है। और इस नववर्ष को मनाने के पीछे बहुत से कारण भी हैं उस समय शरद ऋतू की समाप्ति होकर एक नई ऋतु का आगमन होता है , चारों और फसल की बहार होती है , वातावरण शांत , होता है।
इसी माह में
“श्री रामचंद्र” का जन्म होता है जिसे हम “रामनवमी” के नाम से मनाते हैं , तो फिर यह पश्चिमी देशों का त्यौहार हम क्यों मनाए थोड़ा सोचिए विचार कीजिए , कब तक हम पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करेंगे उसका अनुसरण करते रहेंगे, क्यों हम अपने त्यौहार , रीति-रिवाज , संस्कार को भूलते जा रहे हैं हम यह सोचते हैं कि पाश्चात्य देश हम से आगे है या हमारी संस्कृति से अच्छी है तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है हम ज्ञान में या संस्कृति में भी उन से कहीं आगे हैं।
बस हमें अपने आप को पहचानने की जरूरत है अपनी संस्कृति को जानने की जरूरत है अपने ज्ञान अपने पूर्वजों के संस्कारों को पहचानना जानना व उसका अनुसरण करना चाहिए।
भारत तो पहले से ही ज्ञान का भंडार रहा है ,
यहां पर देश विदेश से शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करने के लिए आए और अपने अपने देश में यहां के शिक्षा का प्रयोग किया “तक्षशिला” जो अब अपने अस्तित्व को खो चुका है वह विश्वविद्यालय दुनिया में एक मिसाल था। दुनिया भर से लोग यहां पर अध्ययन के लिए आते थे यहां यहां की शिक्षा लेकर अपने देश गए और वहां पर शिक्षा का प्रचार किया आज उसी तक्षशिला के लोग अपनी संस्कृति शिक्षा सभ्यता आदि को खोते जा रहे हैं।
ज्यादा न कहते हुए अपने शब्दों को यहीं रोक रहा हूं आप खुद बुद्धिमान हैं ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है बस एक दिशा दिखा रहा हूं या प्रयत्न कर रहा हूं कि यह वर्क अपना है या पराया इसे पहचानना चाहिए और अपना नव वर्ष छोड़कर दूसरों का नव वर्ष मनाना कहां तक उचित है यह विचार करना चाहिए।
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प्रस्तुत कविता रामधारी सिंह दिनकर जी की नहीं है I ये अंकुर ‘आनंद’ , १५९१/२१ , आदर्श नगर , रोहतक (हरियाणा ) की मौलिक रचना है I ये रचना दिनकर जी की किसी पुस्तक में नहीं मिलेगी I