समाज सुधारों की दृष्टि से 19वीं शताब्दी का भारतीय इतिहास में उल्लेखनीय स्थान है। विभिन्न समाज सुधारकों के प्रयासों के फलस्वरुप भारतीय समाज में अज्ञानता , रूढ़िवाद और संकुचित विचारों के स्थान पर उदार विचारधारा और मानवीय दृष्टिकोण की हवा बहनी शुरू हो गई थी।
महात्मा ज्योतिबा फुले की संपूर्ण जीवनी
इन्ही समाज सुधारकों में से एक थे महात्मा ज्योतिबा फुले , जो हमारे सामाजिक बुराइयों के अंधकार में सचमुच ज्योति बनकर आए थे। डॉक्टर अंबेडकर से बहुत पहले उन्होंने सामाजिक मुक्ति संग्राम छेड़ा था और दबे कुचले लोगों में स्वाभिमान का संचार किया था। शिक्षा के द्वारा ही उपेक्षितों और स्त्रियों की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है ऐसी उनकी मान्यता थी।
महात्मा ज्योतिबा फुले का विचार था –
- विद्या विना मति गई , मति बिना नीति गई। ।
- नीति विना गति गई , गति विना वित्त गया। ।
- वित्त बिना शूद्र हुआ बिना विद्या के इतने अनर्थ। ।
पुणे (महाराष्ट्र ) मैं माली जाति के अनपढ़ किसान में 11 अप्रैल 1827 में ज्योतिबा फुले का जन्म हुआ। महाराष्ट्र में माली जाति को शूद्र माना जाता था। फूल-माली का व्यवसाय करने के कारण उनका परिवार फूले नाम से प्रसिद्ध था। इनके पिता गोविंद राय व माता चिमना बाई दोनों ही सीधे – सादे व धार्मिक प्रवृत्ति के थे। जब ज्योतिबा 1 साल के थे उनकी माता जी का स्वर्गवास हो गया।
उनके पिता गोविंद राय ज्योतिबा के भविष्य व पढ़ाई को लेकर चिंतित रहने लगे।
ज्योतिबा की प्रारंभिक शिक्षा घर पर तथा मराठी पाठशाला में हुई , उन दिनों उच्च वर्ग के व्यक्ति ही शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। दलित और निम्न जातियों को शिक्षा से वंचित रखा जाता था।
कट्टरपंथियों के विरोध के चलते ज्योतिबा की पढ़ाई को बीच में रोक देना पड़ा।
महाराष्ट्र में उन दिनों सभी जातियों में बाल विवाह प्रथा प्रचलित थी।
गोविंद राय ने ज्योतिबा की शादी 14 वर्ष की आयु में ही सावित्रीबाई जिनकी आयु केवल 8 वर्ष थी से कर दी। उनके पिता के निरंतर प्रयासों से 14 वर्ष की आयु में 3 वर्ष बाद ज्योतिबा का एक मिशन स्कूल में दाखिला हो गया।
कुशाग्र बुद्धि के ज्योतिबा परीक्षाओं में हमेशा सर्वोच्च अंक प्राप्त करते थे।
परंपरागत शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ ज्योतिबा ने संत एकनाथ की ‘ भागवत ‘ संत ज्ञानेश्वर की ‘ ज्ञानेश्वरी ‘ व संत तुकाराम की ‘ गाथा ‘ भी पढ़ी।
साथ ही संस्कृत में गीता , उपनिषद और पुराणों का भी अध्ययन किया।
छत्रपति शिवाजी और जॉर्ज वॉशिंगटन के जीवन चरित्र से भी उन्हें बहुत प्रेरणा मिली इसी बीच इनका चिंतन क्षेत्र विस्तृत हुआ और उन्हें अपने अधिकार व कर्तव्य का ज्ञान हुआ। उन्हें ऊंच-नीच अमीर गरीब की दीवारें तुच्छ लगने लगी उन्होंने समझा कि धर्म का उद्देश्य आत्मिक विकास ही नहीं मानव सेवा भी है।
विद्यार्थी जीवन में ज्योतिबा के मन में देशप्रेम की भावनाएं उठती कि अंग्रेजों को देश से निकाल देना चाहिए किंतु इसके लिए उन्हें भारतीय समाज में संगठन की कमी खटकती रही।
- ज्योतिबा हिंदू समाज में व्याप्त पाखंड और जातिवाद रूढ़ियों को भी मिटाना चाहते थे।
- वह मानते थे कि मानवता का सदाचार सर्वोच्च गुण है।
- सब मनुष्य बराबर है जाति बड़ी नहीं मनुष्य के गुण बड़े होते हैं।
- उनका विचार था कि शिक्षा से ही दलितों में आत्मसम्मान का भाव जागेगा नई चेतना का संचार होगा व सामाजिक भेदभाव दूर होगा।
तमाम अवरोधों व कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद ज्योतिबा ने पुणे में शूद्र और निम्न जातियों की स्त्रियों के लिए स्कूल खोला उन्होंने स्वयं व उनकी पत्नी सावित्री फुले ने पढ़ाना शुरू किया।
सावित्रीबाई वस्तुतः पहली भारतीय महिला थी जिन्होंने नारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कार्य का श्रीगणेश किया।
यद्यपि वह अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थी उन्होंने ज्योतिबा के प्रयत्न से घर पर ही शिक्षा ग्रहण की थी।
सन 1851 में दूसरा विद्यालय भी खोल दिया अब ज्योतिबा अकेले नहीं थे लोग साथ आते गए और कारवां बढ़ता गया। प्रगतिशील विचारों वाले उच्च जाति के अनेक व्यक्ति भी उनके साथ थे उन्होंने विधवा विवाह के लिए प्रभावी आंदोलन चलाया पेशवा बाजीराव द्वितीय द्वारा बनाए गए दक्षिणा कोष उसके विरोध में हस्ताक्षर अभियान चलाया अंततः दक्षिणा कोष प्रथा को बंद करना पड़ा। इस घटना के बाद मात्र 22 वर्ष के युवा ज्योतिबा नव विचारों व सामाजिक क्रांति के अगवा बन गए।
ज्योतिबा हिंदू समाज की तत्कालीन संकीर्णता जड़ता और कट्टरता के खिलाफ थे किंतु धर्मांतरण करके ईसाई आदि बनने के वह घोर विरोधी थे।
उन्होंने अपनी पाठशाला ने एक हिंदू कर्मचारी को ईसाई बनने से रोका था।
लेले नामक अपने मित्र को उन्होंने इसाई मत अपनाने के बाद घर वापसी कराई व अपने अनुयायियों को समझाते थे कि विद्या जहां से मिले जैसे मिले प्राप्त कर लो लेकिन देशभक्ति और भारतीय संस्कृति को मत छोड़ो।
उनके प्रयासों से 23 सितंबर 1876 को ‘ सत्यशोधक ‘ समाज की स्थापना की गई सत्यशोधक समाज के सदस्यों को ज्योतिबा यज्ञोपवित धारण कराते थे। वह विवाह में अपव्यय ज्योतिष में विश्वास वह व्यर्थ के कर्मकांडों के विरोधी थे उनके प्रयासों से पुरोहित रहित व दहेज रहित विवाह होने लगे।
ज्योतिबा ने विधवा विवाह का विरोध किया विधवा स्त्रियों का मुंडन कर देने की प्रथा को उन्होंने विरोध किया विद्वानों द्वारा शिशु को जन्म देने पर उस शिशु के पालन पोषण के लिए आश्रम बनवाया। 1875 – 77 के अकाल में किसानों के बीच अथक परिश्रम किया ज्योतिबा ने 1883 में किसानों की समस्याओं पर एक पुस्तक लिखी मराठी में एक पुस्तक ‘ ब्राह्मणके कसब ‘ की रचना की।
ज्योतिबा फुले की एक अन्य वीर रस से ओतप्रोत पुस्तक ‘ शिवाजी चा पोहड़ा ‘ प्रकाशित हुई।
इसमें छत्रपति शिवाजी के विस्तार पूर्ण कार्यो का बड़ा ही ओजस्वी और रोमांचकारी चित्रण है।
उनकी अन्य कृति चेतक यात्रा आशूर किसानों का प्रतिरोध 1889 में प्रकाशित हुई।
जिसमें उनके प्रगतिशील निबंध थे।
‘इशारा ‘व ‘ सतसर ‘ नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन 1885 में शुरू किया गया।
जीवनपर्यंत संघर्ष करते-करते
- 21 अक्टूबर 1890 को
- रात 2:00 बज कर 20 मिनट
पर यह दिव्य ज्योति परमात्मा में विलीन हो गई।
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