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रस कक्षा दसवीं के लिए
नाम रस स्थाई भाव
1 शृंगार रस। रति (अनुकल वस्तु में मन का अनुराग या प्रेम)
2 करुण रस शौक (प्रिय वस्तु की हानि से चित्र में विकलता)
3 शांत रस निर्वेद (तत्वज्ञान में सांसारिक विषयों के प्रति वैराग्य या उदासीनता)
4 हास्य रस हास (भविष्यवाणी या चेष्टा आदि को विकृति से उत्पन्न उल्लास)
5 वीर रस उत्साह (कार्यारंभ के लिए दृढ़ उद्यम या संकल्प भाव)
6 अद्भुत रस विस्मय (अलौकिक या असाधारण वस्तु जनित आश्चर्य या कोतूहल)
7 रौद्र रस क्रोध (प्रतिकूल के प्रति चित्र की उग्रता)
8 वीभत्स रस जुगुप्सा (दोषयुक्त वस्तु से जनित घृणा)
9 भयानक रस भय ( उग्र वस्तु जनहित चित्र की व्याकुलता)
10 वात्सल्य वात्सल्य (संतान या प्रियजन की चेष्टा उनसे उत्पन्न प्रेम भाव)
11 भक्ति रस श्रद्धा (इष्ट के प्रति कृतज्ञता जनहित समर्पण सेवा आदि भाव)
1. श्रृंगार रस
श्रृंगार रस को रसराज माना गया है , क्योंकि यह अत्यंत व्यापक रहा है श्रृंगार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है श्रृंग + आर । ‘श्रृंग’ का अर्थ है “कामोद्रेक” , ‘आर’ का अर्थ है वृद्धि प्राप्ती अतः श्रृंगार का अर्थ हुआ कामोद्रेक की प्राप्ति या विधि श्रृंगार रस का स्थाई भाव दांपत्य प्रेम है । पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका कि प्रेम की अभिव्यंजना की श्रृंगार रस की विषय वस्तु है प्राचीन आचार्यों ने स्त्री पुरुष के शुद्ध प्रेम को ही रति कहां है।
श्रृंगार रस के 1 ‘संयोग’ और 2 ‘वियोग’ दो प्रमुख भेद होते हैं इन दोनों के अंतर्गत जीवन के न जाने कितने क्रियाकलाप सुख कारण का भाव वेदनाएं स्थान पाते हैं |
(१ ) संयोग श्रृंगार –
संयोग श्रृंगार वहां होता है जहां नायक-नायिका की मिलन अवस्था का चित्रण किया जाता है।
उदाहरण :-
‘में निज आलिन्द में खड़ी थी सखी एक रात,
रिमझिम बूंदें पढ़ती थी घटा छाई थी ,
गमक रही थी केतकी की गंध ,
चारों और झिल्ली झनकार ,
वही मेरे मन भाई थी। ‘
यहां पर
आश्रय – उर्मिला
आलंबन – लक्ष्मण
स्थाई भाव – रति (प्रेम )
उद्दीपन – केतकी की गंध , रिमझिम बरसा , झिल्ली की झंकार , बिजली का चमकना आदि
संचारी – हर्ष, धैर्य,लज्जा ,रोमांच,
अनुभाव – नुपुर का बजना , छाती से लगा लेना आदि।
” उदित उदय गिरी मंच पर रघुवर बाल पतंग विकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग। ।”
(२ )वियोग श्रृंगार
वियोग श्रृंगार वहां होता है जहां नायक-नायिका में परस्पर प्रेम होने पर भी मिलन संभव नहीं हो पाता | रस कक्षा दसवीं के अनुसार
“जल में शतदल तुल्य सरसते
तुम घर रहते हम न तरसते
देखो दो दो मेघ बरसते मैं प्यासी की प्यासी।”
“अवधि अधार आस आवन की , तन मन बिथा सही।
अब इन जोग संदेशनि सुनी – सुनी , बिरहिनि बिरह दही।” ( सूरदास के पद )
” छोड़ा मेरे लिए हाय क्या तुमने आज उदार ?
कैसे भार सहेगा सम्प्रति राहुल है सुकुमार?”
” में निज राज भवन में सखी प्रियतम है वन में।”
2. हास्य रस
हास्य रस का स्थाई भाव ‘ हास्य ‘है साहित्य में हास्य रस का निरूपण बहुत ही कठिन कार्य होता है क्योंकि थोड़ी सी असावधानी से हास्य फूहड़ मजाक में बदल कर रह जाता है । हास्य रस के लिए उक्ति व्यंग्यात्मक होना चाहिए |हास्य और व्यंग्य दोनों में अंतर है दोनों का आलंबन विकृत या अनुचित होता है लेकिन हास्य हमें जहां आता है वही खिलखिला देते हैं लेकिन जहां व्यंग्य आता है वहां चुभता है और सोचने पर विवश करता है ।
उदाहरण
‘‘अपने यहां संसद तेली की वह धानी जिसमें आधा तेल है और आधा पानी,
दरअसल अपने यहां जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है जिसकी जान मदारी की भाषा है।।’’ रस कक्षा दसवीं के अनुसार
3. करुण रस
करुण रस में हृदय द्रवित हो कर स्वयं उन्नत हो जाता है भावनाओं का ऐसा परीसपाद होता है कि अन्य रस तरंग किया बुलबुले के समान बहने लगते हैं इसका स्थाई भाव ‘ शौक ‘है करुण रस लीन मग्न होकर हमारी मनोवृत्तियों स्वच्छ होकर निर्मल हो जाती है।
उदाहरण
” तब भी कहते हो कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती ,
तुम सुनकर सुख पाओगे देखोगे यह गागर रीति। ” ( आत्मकथ्य जयशंकर प्रसाद )
” मेरे हृदय के हर्ष हा!अभिमन्यु अब तू है कहां ,
दृग खोलकर बेटा तनिक तो देख हम सब को यहां मामा खड़े हैं पास तेरे तू यहीं पर है पड़ा ।।”
” दूँ किस मुख से उल्हना ,
नाथ मुझे इतना ही कहना।”
” दिव्य मूर्ति वंचित भले चर्म चक्षु गल जाये ,
प्रलय पिघलकर प्रिय न जो प्राणो में ढल जाये।”
” चुप रह चुप रह , हाय अभागे ,
रोता है अब किसके आगे।”
4. वीर रस
समाजिकों के हृदय में वासना रुप से विद्यमान उत्साह स्थाई भाव काव्यों आदि में वर्णित विभाव अनुभाव संचारी भाव के संयोग से जब रस अवस्था में पहुंचकर आस्वाद योग्य बन जाता है तब वह वीर रस कहलाता है । इसकी मुख्यता चार प्रवृत्ति है –
” रे नृपबालक कालबस बोलत तोहि न सँभार
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार। ” ( तुलसीदास परशुराम संवाद )
1 दयावीर
दयावीर भाव की अभिव्यक्ति वहां होती है जहां कोई व्यक्ति किसी दिन दुखी पीड़ित जन को देखकर उसकी सहायता करने में लीन हो जाता है । जैसे –
- ‘ देखि सुदामा की दीन दशा करुण करके करूणानिधि रोए ‘ ।
- ” दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान , तुलसी दया न छोड़िये जब लगी घट में प्राण “
2 दानवीर
इसके आलंबन में दान प्राप्त करने की योग्यता का होना अनिवार्य है
‘ क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात का रहीम हरि को गए जो भिक्षु मारी लात ‘ ।
3 धर्मवीर
इसके स्थाई भाव में धर्म स्थापना का उद्देश्य प्रमुख होता है दूसरों से धर्म की महत्ता का ज्ञान प्राप्त करना अपनी टेक (प्रतिक्रिया ) का पालन करना इस में प्रमुख रुप से व्याप्त होता है।
” धर्म किये धन न घटे,नदी घटे न नीर।”
” मैं त्रिविध दुःख विनिर्वित्ती हेतु,
बाँधु अपना पुरुषार्थ सेतु
सर्वत्र उड़े कल्याण केतु।”
4 युद्धवीर
काव्य में सबसे अधिक महत्व युद्धवीर का है लोक में भी वीर रस से तात्पर्य युद्धवीर से ही लिया जाता है इसका स्थाई भाव ‘शत्रुनाशक उत्साह ‘ है
” मैं सच कहता हूं सखे ,सुकुमार मत जानो मुझे,
यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा जानो मुझे ,
है और उनकी बात क्या गर्व मैं करता नहीं ,
मामा और निजी ताज से भी समर में डरता नहीं।।”
यह उक्ति अभिमन्यु ने अपने साथी को युद्ध भूमि में कही है।
” खेदी खेदी खाती दिह दारुन दलन के।”
” स्वयं सुसज्जित करके क्षण में
प्रियतम के प्राणो के पन में
हमी भेज देती हैं रण में
क्षात्र धर्म के नाते।”
5 भयानक रस
विभाव , अनुभाव एवं संचारी भावों के प्रयोग से जब सर्व हृदय समाजिक के हृदय में विद्यमान है स्थाई भाव उत्पन्न हो कर या प्रकट होकर रस में परिणत हो जाता है तब वह भयानक रस होता है वह की वृत्ति बहुत व्यापक होती है यह केवल मनुष्य में ही नहीं समस्त प्राणी जगत में व्याप्त है।
” एक और अजगरही लाखी एक और मृगराही
विकट बटोही बीच ही परयो मूरछा खाई ।।”
” उदित हुआ सौभग्य मुदित महलों में उजयाली छाई ,
किन्तु कालगति चुपके चुपके काली घटा घेर लाई।”
6 रौद्र रस
इसका स्थाई भाव क्रोध है विभाव अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से वासना रूप में समाजिक के हृदय में स्थित क्रोध स्थाई भाव आस्वादित होता हुआ रोद्र रस में परिणत हो जाता है ।
” श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे ।
सब शोक अपना भूलकर तल युगल मलने लगे ।
संसार देखें अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े ।
करते हुए यह घोषणा वह हो गए उठ खड़े ।।” रस कक्षा दसवीं के अनुसार
” देख कराल सा जिसको कांप उठे सब भय से ,
गिरे प्रतिद्व्न्दी नंदार्जुन नागदत्त जिस हय से।”
7 वीभत्स रस
घृणित वस्तुओं को देखकर या सुनकर ‘जुगुप्सा’ नामक स्थाई भाव जब विभाव अनुभाव संचारी भावों के सहयोग से परिपक्व अवस्था में पहुंच जाता है तो विभत्स रस में परिणत हो जाता है |
प्रेमचंद जैसे सामाजिक साहित्यकारों को विसंगतियों के प्रति वीजभाव घृणा हीन है । आधुनिक साहित्य में इसका खूब चित्रण हुआ है । क्योंकि यह जीवन निर्माण की अद्भुत शक्ति रखता है ।
“रक्तबीज सौ अधर्मी आयो
रणदल जोड़ के सूर क्रोध आयो
अस्त्र-शस्त्र सजाए के योग नींद को रक्त पिलायो अंतरिक्ष में पठाए के महामूढ निस्तंभ योद्धा ठानों है खड़ग।।”
प्रस्तुत उदहारण में गुरु गोविंद सिंह प्रति चंडी चरित्र में युद्ध का दृश्य वर्णित है जिसमें रक्तबीज को मारने के लिए स्वयं शक्ति ने अनेकानेक योगिनियां का रूद्र धारण कर लिया है युद्ध भूमि का सजीव चित्रण होने के बाद यहां वीभत्स रस की व्यंजना है । रस कक्षा दसवीं के अनुसार
8 अद्भुत रस
अद्भुत रस का स्थाई भाव विस्मय है विस्मय में मानव की आदिम प्रवृत्ति है खेल – तमाशे या पूरे कला कौशल से उत्पन्न विस्मय में उदात भाव हो सकता है परंतु रस नहीं हो सकता । अद्भुत रसों का व्यापक वर्णन हमारे साहित्य में हुआ है लेकिन हम उसे रस के स्थान पर आदि शब्दों का प्रयोग कर छोड़ देते हैं ऐसी शूक्तियां और व्यंजना है जिसमे चमत्कार प्रधान होता है वह सीधे अद्भुत रस से संबंध है ।
उदाहरण
“लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार ,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार।”
“अखिल भुवन चर अचर सब हरि
मुख में लखी मांतो
चकित भई गदगद वचन
विकसित दृग कूल काव ।।”
” पद पाताल शीश अजधामा , अपर लोक अंग-अंग विश्रामा ।
भृकुटि विलास भयंकर काला नयन दिवाकर कच धनमाला।”
” आली मेरे मनस्ताप से पिघला वह इस वार ,
रहा कराल कठोर काल सा हुआ सदय सुकुमार।”
अतः अद्भूत अदभुत रस विस्मयकारी घटनाओं वस्तुओं व्यक्तियों तथा उनके चमत्कार को क्रियाकलापों के आलंबन से प्रकट होता है उनके अद्भुत व्यापार घटनाएं परिस्थितियां उद्दीपन बनती है आंखें खुली रह जाना एक टक देखना प्रसन्न होना रोंगटे खड़े हो जाना कंपन स्वेद ही अनुभाव सहज ही प्रकट होते हैं । उत्सुकता , जिज्ञासा ,आवेग , भ्रम, हर्ष, मति,गर्व, जड़ता ,धैर्य , आशंका ,चिंता , अनेक संचारी भाव से धारण कर अद्भुत उदास रूप धारण कर अद्भुत रस में परिणत हो जाता है ।
9 शांत रस
शांत रस की उत्पत्ति तत्वभाव और वैराग्य से होती है इसका स्थाई भाव निर्वेद है विभाव अनुभाव व संचारी भावों से संयोग से हृदय में विद्यमान निर्वेद स्थाई भाव स्पष्ट होकर शांत रस में परिणत हो जाता है । आनंद वर्धन ने तृष्णा और सुख को शांत रस का स्थाई भाव बताया है । वैराग्य की आध्यात्मिक भावना शांत रस का विषय है । संसार की अस्वता मृत्यु जरा को आदि इसके आलंबन होते हैं जीवन की अमित्यता का अनुभाव सत्संग धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन श्रवण आदि उद्दीपन विभाव है और संयम स्वार्थ त्याग सत्संग गृहत्याग स्वाध्याय आत्म चिंतन आदि अनुभाव कहे जा सकते हैं । शांत रस के संचारी में मति ग्लानि, घृणा ,हर्ष , स्मृति ,संयोग ,विश्वास ,आशा दैन्य आदि की परिगणना की जा सकती है ।
भारत में कवि मानव महात्मा बुद्ध , दयानंद , विवेकानंद ,आदि की समष्टि साधना और परमार्थ भावना शांत रस की रसानुभूति होती है । इसमें आध्यात्मिक शांति का सबसे ज्यादा महत्व है जो ना केवल वैराग्य को प्रकट करता है अपितु जीवन में संतोष की सृष्टि भी करता है ।
“ओ क्षण भंगुर भव राम राम ।।”
जब सिद्धार्थ घट छोडकर वन मे जाते है तो वह संसार को सम्बन्धित करते हुए उससे विदा माँगते है । संबोधित करते हुए उससे विदा मांगते हैं , इन पंक्तियों में सिद्धार्थ निर्वेद स्थाई भाव का आश्रय यह संसार ही इसका आलंबन है संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान उद्दीपन है | संसार को संबोधित करना घर छोड़कर भागने को कहना और संसार से विरक्ति भाव आदी अनुभाव है | दैनिय , धर्म , रोमांच आदि संचारी भाव है | यहां शांत रस का सुंदर परिपाक है क्योंकि शांत रस वस्तुतः ऐसे मानसिक स्तूती है जिसमें व्यक्ति समस्त संसार को सुखी और आनंदमय देखना चाहता है |
Example
“सब देकर भी क्या दीन
अपने या तेरे निकट हीन
मै हु अब अपने अधीन।”
” जाओ नाथ अमृत लाओ तुम मुझमे मेरा पानी ,
चेरी ही मै बहुत तुम्हारी भुक्ति तुम्हारी रानी।”
रस कक्षा दसवीं के अनुसार
10 वात्सल्य रस
वात्सल्य रस का आलंबन आधुनिक आचार्यों की देन है | सूरदास ने अपने काव्य में वात्सल्य भाव का सुंदर विवेचन किया और इसके बाद इसे अंतिम रूप से रस स्वीकार कर लिया गया | आचार्य विश्वनाथ ने वात्सल्य की स्वतंत्र रूप में प्रतिष्ठा तो की परंतु इसे ज्ञापल स्वीकृति सूर , तुलसी आदि भक्ति में काल के कवियों द्वारा ही प्रदान की गई |
वात्सल्य रस का स्थाई भाव वत्सल है | बच्चों की तोतली बोली , उनकी किलकारियां , मनभावन खेल अनेक प्रकार की लीलाएं इसका उद्दीपन है | माता-पिता का बच्चों पर बलिहारी जाना , आनंदित होना , हंसना उन्हें आशीष देना आदि इसके अनुभाव कहे जा सकते हैं | आवेद , तीव्रता , जड़ता ,रोमांच ,स्वेद, आदि संचारी भाव है | इसमें वात्सल्य रस के दो भेद किए गए हैं
१ संयोग वात्सल्य
२ वियोग वात्सल्य
रस कक्षा दसवीं के अनुसार
” तुम्हारी यह दंतुरित मुस्कान
मृतक में भी डाल देगी जान
धूली – धूसर तुम्हारे यह गात। ” ( नागार्जुन यह दंतुरित मुसकान )
” मैया कबहु बढ़ेगी की चोटी
किती बार मोहे दूध पीबाती भई अजहू है छोटी। “
11 भक्ति रस
संस्कृत साहित्य में व्यक्ति की स्वतंत्र रूप से नहीं है | किंतु बाद में मध्यकालीन भक्त कवियों की भक्ति भावना देखते हुए इसे स्वतंत्र रस के रूप में व्यंजित किया गया | इस रस का संबंध मानव के उच्च नैतिक आध्यात्मिक से है | इसका स्थाई भाव ईश्वर के प्रति रति या प्रेम है भगवान के प्रति पुण्य भाव श्रवण , सत्संग कृपा ,दया आदि उद्दीपन विभाव है| अनुभाव के रूप में सेवा अर्चना कीर्तन वंदना गुणगान प्रशंसा आदि के लिए किए जा सकते हैं अनेक प्रकार के कायिक , वाच्य ,आहार , जैसे आंसू , रोमांच , स्वेद , आदि अनुभाव कहे जा सकते हैं | संचारी रूप में हर्ष , आशा , गर्व , स्तुति ,धैर्य संतोष आदि अनेक भाव संचरण करते हैं इसमें आलंबन ईश्वर और आश्रय उस ईश्वर के प्रेम के अनुरूप मन है |
” राम तुम्हारे इसी धाम में नाम रूप गुण लीला लाभ।”
” भुक्ति मुक्ति क्या मांगे तुमसे हमे भक्ति दो अमिताभ।”
” ठहर बाल गोपाल कन्हैया ,
राहुल राजा भैया ,
कैसे धाऊ पाऊं तुझको हार गई में दैया।”
” प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी,
जाकी गंध अंग – अंग समानी।”
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