स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन | स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं |

Women empowerment in hindi

 

स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्को का खंडन

 

बड़े शोक की बात है , आजकल भी ऐसे लोग विद्यमान है जो स्त्रियों को पढ़ाना उनके और गृह – सुख के नाश का कारण समझते हैं | ये लोग स्त्री शिक्षा को गलत समझते थे | और , लोग भी  ऐसे – वैसे नहीं, सुशिक्षित लोग – ऐसे लोग जिन्होंने बड़े-बड़े स्कूलों और शायद कॉलेज में भी शिक्षा पाई है , जो धर्म – शास्त्र और संस्कृत के ग्रंथ साहित्य से परिचय रखते हैं , और जिनका  पेशा कुशिक्षितों को शिक्षितों को सुशिक्षित करना , कुमार्गगामीयों को सुमार्गगामी बनाना और अधार्मीको को धर्मतत्व समझाना है । उनकी दलीलें सुन लीजिए –

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1  पुराने संस्कृत – कवियों के नाटकों में कुलीन स्त्रियों से अपढो़ की भाषा में बातें कराई गई है । इससे प्रमाणित है कि इस देश में स्त्रियों को पढ़ाने की चाल न थी । होती तो इतिहास पुराणादि में उन को पढ़ाने की नियमबद्ध प्रणाली जरूर लिखी होती ।

2 स्त्रियों को पढ़ाने से अनर्थ होते हैं ।शकुंतला इतना कम पढ़ी-लिखी की गँवारों की भाषा में मुश्किल से एक छोटा – सा श्लोक वह लिख सकती थी । तीस पर भी उसकी इस इतनी कम शिक्षा ने भी अनर्थ कर डाला । शकुंतला ने जो कटु वाक्य दुष्यंत को कहे, वह इस पढ़ाई का ही दुष्परिणाम था ।

3  जिस भाषा में शकुंतला ने श्लोक रचा था वह अपढो़ की भाषा थी । अतएव नागरिकों की भाषा की बात तो दूर रही , अपढ़ गँवारों की भाषा पढ़ाना स्त्रियों को बर्बाद करना है ।

इस तरह की दलीलों का सबसे अधिक प्रभावशाली उत्तर और उपेक्षा ही है तथापि हम दो-चार बातें लिख देते हैं।

 

 नाटकों में स्त्रियों का प्राकृत  बोलना उनके अपढ़ होने का प्रमाण नहीं । अधिक से अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि वे संस्कृत ना बोल सकती थी । संस्कृत न बोल सकना न अपढ़ होने का सबूत है और न गँवार होने का । अच्छा तो उत्तररामचरित में ऋषियों की  वेदांतवादिनी पत्नियां कौन – सी भाषा बोलती थी? उनकी संस्कृत क्या कोई गवारी संस्कृत थी ?भवभूति और कालीदास आदि के नाटक जिस जमाने  के हैं उस जमाने में शिक्षतो  का समस्त समुदाय संस्कृत ही बोलता था ,इसका प्रमाण पहले कोई दे ले  तब प्राकृतिक बोलने वाली स्त्रियों को अपढ़  बताने का साहस करें |

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इसका क्या सबूत कि उस जमाने में बोलचाल की भाषा प्राकृत ना थी? सबूत तो प्राकृत के चलन के ही मिलते हैं |

प्राकृत यदि उस समय की प्रचलित भाषा ना होती तो बौद्धों और जैनों के हजारों ग्रंथ उसमें क्यों लिखे जाते , और भगवान शाक्यमुनि तथा उन के चेले प्राकृत ही में क्यों धर्मोपदेश देते / बौद्ध धर्म के त्रिपिटक ग्रंथ की रचना प्राकृत में किए जाने का एकमात्र यही कारण है कि उस जमाने में प्राकृत ही सर्वसाधारण की भाषा थी |

अतएव  प्राकृतिक बोलना और लिखना अपढ और अशिक्षित होने का चिन्ह नहीं | जिन पंडितों ने गाथा – सप्तशती सेतुबंध – महाकाव्य और कुमारपालचरित्र आदि ग्रंथ प्राकृतिक में बनाए हैं , वे यदि अपढ और गवार थे तो हिंदी के प्रसिद्ध से भी प्रसिद्ध अखबार का संपादक इस जमाने में अपढ़ और गवार कहा जा सकता है | क्योंकि वह अपने जमाने की प्रचलित भाषा में अखबार लिखता है | हिंदी , बांग्ला ,आदि भाषाएं आजकल की प्राकृतिक है  शौरसेनी ,मागधी , महाराष्ट्र , और पाली ,आदी भाषाएं उस जमाने की थी | प्राकृत पढ़कर भी उस जमाने में लोग उसी तरह सभ्य शिक्षित और पंडित हो सकते थे जिस तरह की हिंदी , बांग्ला , मराठी आदि भाषाएं पढ़कर इस जमाने में हम हो सकते हैं |

सिर्फ प्राकृत बोलना अपढ़  होने का सबूत है यह बात कैसे मानी जा सकती है?

जिस समय आचार्यों ने नाट्यशास्त्र संबंधी नियम बनाए थे उस समय सर्वसाधारण की भाषा संस्कृत न थी | चुने हुए लोग ही संस्कृत बोल बोलते या बोल सकते थे | इसी से उन्होंने उनकी भाषा संस्कृत और दूसरे लोगों तथा स्त्रियों की भाषा प्राकृत रखने का नियम कर दिया|

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पुराने जमाने में स्त्री शिक्षा के लिए कोई विश्वविद्यालय न था | फिर नियमबद्ध प्रणाली का उल्लेख आदि पुराणों में न मिले तो क्या आश्चर्य | और , उल्लेख उसका कहीं रहा हो पर नष्ट हो गया हो तो?  पुराने जमाने में विमान उड़ते थे | बताइए उनके बनाने की विद्या सिखाने वाला कोई शास्त्र ; बड़े बड़े जहाजों पर सवार होकर लोग दीपान्तरों  को जाते थे | दिखाइए जहाज बनाने की नियमबद्ध प्रणाली के दर्शन ग्रंथ ; पुराणादि  में विमानों और जहाजों द्वारा की गई यात्राओं के हवाले देखकर उनका अस्तित्व तो हम बड़े गर्व से स्वीकार करते हैं ,

परंतु पुराने ग्रंथों में अनेक प्रगल्भ  पंडितोंओ  के नाम उल्लेख देखकर भी कुछ लोग भारत की तत्कालीन स्त्रियों को मूर्ख अपढ़  और गवार बताते हैं ; इस तर्कशास्त्रज्ञता और इस न्यायशील की बलिहारी ; वेदों को प्रायः सभी हिंदू ईश्वर – कृत मानते हैं |

सो  ईश्वर तो वेद – मंत्रों की रचना अथवा उनका दर्शन विश्ववारा आदि स्त्रियों से करवा करावे और हम उन्हें कह ककहरा  पढ़ाना भी पा प समझे | शीला और  विज्जा  आदि कौन थी?  वह स्त्री थी या नहीं बड़े बड़े पुरुष कवियों से आदृत  है या नहीं ? शारगंधर पद्धति में उनकी कविता के नमूने हैं या नहीं ? बौद्ध – ग्रंथ त्रिपिटक के अंतर्गत थेरीगाथा में जिन सैकड़ों स्त्रियों की पद रचना उद्धृत  है वह क्या अपढ़ थी ? जिस भारत में कुमारिकाओं  को चित्र बनाने ,नाचने ,गाने ,बजाने ,फूल चुनने , हार गुथने , पैर मलने  तक की कला सीखने की आज्ञा थी उनको लिखने – पढ़ने की आज्ञा न थी | कौन विज्ञ ऐसी बात मुख से निकालेगा ? और कौन निकाले भी तो मानेगा कौन ?

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अत्रि की पत्नी धर्म – पत्नी धर्म पर व्याख्यान देते समय घंटों पांडित्य प्रकट करें | गार्गी बड़े-बड़े ब्रह्मावादियों को हरा दे , मंडनमिश्र की सहधर्मचारिणी शंकराचार्य के छक्के छुड़ा दे ;गजब; इससे अधिक भयंकर बात और क्या हो सकेगी ; यह सब पापी पढ़ने का अपराध है|  न वे  पढ़ती न वे  पूजनीय पुरुषों का मुकाबला करती | यह सारा दुराचार स्त्रियों को पढ़ाने ही का कुफल है |  समझे | स्त्रियों के लिए पढ़ना कालकूट और पुरुषों के लिए पीयूष का घूंट ; ऐसी ही दलिलो  और दृष्टांतों के आधार पर कुछ लोग स्त्रियों को अपढ़  रखकर भारतवर्ष का गौरव बढ़ाना चाहते हैं |

 

मान लीजिए कि पुराने जमाने मेंस्त्री शिक्षा ना थी |  ना सही |  उस समय स्त्री शिक्षा की जरूरत ना समझी गई होगी | पर अब तो है | अतएव  पढ़ाना चाहिए |  हमने सैकड़ों पुराने नियमों ,उपदेशों , और प्रणालियों ,को तोड़ दिया है या नहीं ? तो चलिए स्त्रियों को अपढ़ रखने की इस पुरानी चाल को भी तोड़ दें | हमारी प्रार्थना तो यह है कि स्त्री – शिक्षा के विपक्षियों को क्षण भर के लिए भी इस कल्पना को अपने मन में स्थान न देना चाहिए कि पुराने जमाने में यहां की सारी स्त्रियां अपढ़ थी अथवा  उन्हें पढ़ने की आज्ञा न थी | जो लोग पुराणों में पढ़ी-लिखी स्त्रियों के हवाले मांगते हैं उन्हें श्रीमद्भागवत , दशमस्कंध के उत्तरार्ध का 53 वां अध्याय पढ़ना चाहिए | उसमें रुक्मिणी हरण की कथा है |

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रुक्मणी ने जो एक लंबा – चौड़ा पत्र एकांत में लिखकर एक ब्राह्मण के हाथ कृष्ण को भेजा था वह तो प्राकृत में ना था | उसके प्राकृत में होने का उल्लेख भागवत में तो नहीं | उसमें रुक्मणी ने जो पांडित्य दिखाया है वह उसके अपढ़  और अल्पज्ञ होने अथवा गंवारपन  का सूचक नहीं | पुराने  ढंग के पक्के सनातन धर्मावलंबियों की दृष्टि में जो नाटक की अपेक्षा भागवत का महत्व बहुत अधिक होना चाहिए |  इस दशा में यदि उनमें से कोई यह कहे कि सभी प्राकालीन  स्त्रियां अपढ होती थी तो उसकी बात पर विश्वास करने की जरूरत नहीं | भागवत की बात यदि पुराणकार या कवि की कल्पना मानी जाए तो नाटकों की बात उससे भी गई – बीती समझी जानी चाहिए | हमे स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए |

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स्त्रियों का किया हुआ अनर्थ यदि पढ़ाने ही का परिणाम है तो पुरुषों का किया हुआ अनर्थ भी उनकी विद्या और शिक्षा का ही परिणाम समझा जाना चाहिए | बम के गोले फेंकना , नरहत्या करना , डाके डालना , चोरियां करना ,घूस लेना ये  सब यदि पढ़े-लिखे ही का परिणाम है तो सारे कॉलेज , स्कूल और पाठशालाएं बंद हो जानी चाहिए | परंतु विक्षिप्तों बातव्यथितो  और ग्रिहस्तो  के  सिवा ऐसी दलीलें पेश करने वाले बहुत ही कम मिलेंगे | शकुंतला ने दुष्यंत को कटु वाक्य कहकर कौन सी अस्वाभाविकता दिखाई? क्या वह यह कहती कि ” आर्य पुत्र शाबाश  बड़ा अच्छा काम किया जो मेरे साथ गांधर्व – विवाह करके मुकर गए | नीति , न्याय , सदाचार और धर्म की आप प्रत्यक्ष मूर्ति हैं | ”

 

पत्नी पर घोर  से घोर अत्याचार करके जो उससे ऐसी आशा रखते हैं वे  मनुष्य स्वभाव का किंचित भी ज्ञान नहीं रखते | सीता से अधिक साध्वी स्त्री नहीं सुनी गई | जिस कवि ने शकुंतला नाटक में अपमानित हुई शकुंतला के से दुष्यंत के विषय में दुर्वाक्य  कहाया है उसी ने परीतक्य  होने पर सीता से रामचंद्र के विषय में क्या कहाया है सुनिए –

वाच्यस्त्वया माधचनत स राजा

वाह्यो विशुद्धामति यत्तस्मक्ष्म |

माँ लोकवाद श्रवणादहसि सदृशं  कुलस्य ?

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लक्ष्मण जरा उस राजा से कह देना कि मैंने जो तुम्हारी आंख के सामने ही आग में कूदकर अपनी विशुद्धता साबित कर दी थी |  तीस  पर भी , लोगों के मुख से निकला मिथ्यावाद  सुनकर ही तुम्हें तुम ने मुझे छोड़ दिया |  क्या यह बात तुम्हारे कुल के अनुरूप है ? अथवा क्या यह तुम्हारी विद्वता या महत्ता को शोभा देनेवाली है ?

सीता का यह संदेश कटु नहीं तो क्या मीठा है ? “राजा”  मात्र कहकर उनके पास अपना संदेशा भेजा | यह उक्ति ना किसी गवार स्त्री की ; किंतु ब्रह्माज्ञानी राजा जनक की लड़की और मनवादी महर्षियों के धर्मशास्त्र धर्म शास्त्रों का ज्ञान रखने वाली रानी की –

नृपस्य वर्णाश्रमपालनं  यत

स एव  धर्मों मानुना प्रणीत

सीता की धर्मशास्त्रज्ञता  का यह प्रमाण ,वही  आगे चलकर कुछ ही दूर पर कवि  ने दिया है | सीता परित्याग के कारण बाल्मीकि के समान शांत नीतिज्ञ और क्षमाशील तपस्वी तक ने- ”  अस्येव मानुभारताग्रजे में ”  कहकर रामचंद्र पर क्रोध प्रकट किया है |  अतएव , शकुंतला की तरह अपने परित्याग को अन्याय समझने वाली सीता का राम चंद्र के विषय में कटुवाक्य  कहना सर्वाधिक स्वभाविक है | ना यह पढ़े-लिखे का परिणाम है ना गवार पन का  न  अकुलीनता का|

पढ़ने – पढ़ने लिखने में स्वयं कोई बात ऐसी नहीं जिससे अनर्थ हो सके | अनर्थ का बीज उसमें हरगिज़ नहीं | अनर्थ पुरुषों से भी होते हैं | अपढ़ों  और पढ़े-लिखे दोनों से अनर्थ , दुराचार और पापाचार के कारण और ही होते हैं | और वह व्यक्ति – विशेष का चाल – चलन देख कर जाने भी जा सकते हैं | अतएव स्त्रियों को अवश्य पढ़ाना चाहिए |

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जो लोग यह कहते हैं कि पुराने जमाने में यहां स्त्रियां नही  पढ़ती थी अथवा उन्हें पढ़ने की मुमानियत थी वे या तो इतिहास  से अभिज्ञता नहीं रखते या जान बूझकर लोगों को धोखा देते हैं | समाज की दृष्टि में ऐसे लोग दंडनीय है | क्योंकि स्त्रियों को निरक्षर रखने का उपदेश देना समाज का अपकार और अपराध करना है समाज की उन्नति में बाधा डालना है |

‘शिक्षा ‘ बहुत व्यापक शब्द है | उसमें सीखने योग्य अनेक विषयों का समावेश हो सकता है | पढ़ना – लिखना भी उसी के अंतर्गत है | इस देश की वर्तमान शिक्षा प्रणाली अच्छी नहीं | इस कारण यदि कोई स्त्रियों को बढ़ाना अनर्थकारी समझे तो उसे इस प्रणाली का संशोधन करना या कराना चाहिए , खुद पढ़ने – लिखने का  दोष ना देना चाहिए |  लड़कों की ही  शिक्षा प्रणाली कौन सी अच्छी है |  प्रणाली बुरी होने के कारण क्या किसी ने यह राय दी है कि सारे स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए जाएं ?

आप खुशी से लड़कियों और स्त्रियों की शिक्षा की प्रणाली का संशोधन कीजिए | उन्हें क्या पढ़ाना चाहिए कितना पढ़ाना चाहिए किस तरह की शिक्षा देना चाहिए और कहां पर देना चाहिए घर में या स्कूल में इन सब बातों पर बहस कीजिए विचार कीजिए जी में आवे सो  कीजिए पर परमेश्वर के लिए यह न कहिए कि स्वयं पढ़ने – लिखने में कोई दोस्त है वह अनर्थकर है वह अभिमान का उत्पादक है वह गृह – सुख का नाश करने वाला है | ऐसा कहना सोलह आने मिथ्या है |

कुल मिलाकर स्त्री शिक्षा बहुत आवश्यक है |

स्त्री शिक्षा से ही देश आगे बढ़ सकता है | 

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