कवि नागार्जुन के गांव में, मैथिली कवि विद्यापति के उत्तराधिकारी

विश्वनाथ त्रिपाठी विख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी नागार्जुन के जन्म  शताब्दी समारोह में भाग लेने नागार्जुन के गांव तरौनी गए हुए थे । यहां वह इस यात्रा के बहाने नागार्जुन को याद कर रहे हैं।

कवि नागार्जुन के गांव में। मैथिली कवि

लगभग 2 महीने पूर्व जब मुझे प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव राजेंद्र राजन का तरौणी आने का निमंत्रण मिला, तो उसे मैंने अपना  सौभाग्य समझा। तरौनी  बाबा की कविता में मिथकीय गरिमा प्राप्त कर चुका है। नागार्जुन की कविता में तरौनी के कमल – ताल, लाल मखाना, टटके ताजे मौलसिरी के फूल और चन्नवर्णी  धूल का उल्लेख मन में किसी स्वप्न ग्राम का चित्र उभरता है ।

वर्षों पूर्व मैंने कवि बंधू  इब्बार रब्बी का तरौनी यात्रा का वर्णन पढ़ा था । जाने की फौरन तैयारी करने लगा, फिर भी अकेले जाना इस उम्र में मुश्किल है । घुटनों का दर्द, ब्लड प्रेशर, पेट, कमर, लेकिन इस समस्या का समाधान पहले से मौजूद था ।अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर वेदप्रकाश भी निमंत्रित थे। यात्रा में वह मेरा पूरा ध्यान रखते हैं सो जाना तय हो गया बाबा नागार्जुन मूलतः मैथिली कवि है।

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महान कवि विद्यापति के उत्तराधिकारी उनका यानी मैथिली कवि के रूप में कवि नाम यात्री है । यह हमारी यात्री कवि के गांव की तीर्थयात्रा थी।समारोह 25 जून को था, कहते हैं कि कान जो सुनते हैं वह सब आंखों को सच नहीं लगता। प्रायः विज्ञापित स्थलों को देख कर लगता है कि जैसा फोटो में देखा था या मन में सोचा था।वैसा तो नहीं है लेकिन बाबा नागार्जुन का गांव कल्पित से अधिक सुंदर था।

नागर्जुन के गांव की यात्रा

दरभंगा से तरौनी तक का मार्ग वृक्षों वनस्पतियों से आच्छादित है। बरसात शुरु हो चुकी थी बरसात में वनस्पतियां कैसी निखर कर सद्य- स्नाता हो जाती है, वर्षा वनस्पतियों के गंध भार को बिखेर देती है। महानगरों की बिकने वाली गंध नहीं, अपरिचित असीम रहस्य लोक में पहुंचा देने वाली प्रकृति गंध। बाबा नागार्जुन के प्रिय कवि कालिदास का बिंब साक्षात हो रहा था निर्वृत पर्जन्य जलाभिषेका प्रफुल्लकाशैः वसुधैव रेजे।मैंने बचपन में अपने गांव में कमल ताल देखा था।रक्त कमल से भरा पोखर ।

दरभंगा से तरौनी के रास्ते में कई कमल ताल दिखे।तरौनी में श्वेत कमलों का विस्तृत पोखर देखा था।मैंने रक्त, कमल नीलकमल देखे थे, श्वेत कमल इसके पहले नहीं देखा था। बाबा मैथिल ब्राह्मण थे। मैथिल ब्राह्मणों के यहां कोई शुभ कार्य बिना मछली के संपन्न नहीं होता।तो दोपहर में बाबा नागार्जुन के कनिष्ठ पुत्र श्यामाकांत के घर मछली भात का भोजन हुआ।श्यामाकांत पैतृक घर में रहते हैं। जेष्ठ पुत्र शोभाकांत दरभंगा में भोजन का समापक आइटम आम था। श्यामाकांत ने बताया मां के हाथ से लगाए हुए पेड़ का फल है।नागार्जुन को जीवन के प्रति अपार लालसा थी। शरीर से तो आदमी को बुढाना ही पड़ता है। वह भी बढ़ा गए थे, लेकिन उनका मन आजीवन किशोर बना रहा। मन से तो बुड्ढे कभी नहीं हुए।

नागार्जुन और तुलसीदास में समानता।

बाबा उपाधि से हिंदी का एक और कवि जाना जाता है तुलसीदास। तुलसीदास और नागार्जुन में आधारभूत समानता यह है कि दोनों ने अन्न, बेरोजगारी, और भूख, पर सबसे ज्यादा कविताएं लिखी है। तुलसीदास ने लिखा – आगि बड़वागिनी से बड़ी है आगे पेट की- समुद्र को सोखने वाली बड़वागिनी से ज्यादा कठिन आग पेट की है। 17वीं शताब्दी में उन्होंने अकाल भुखमरी और बेरोजगारी की यातना पर हृदयद्रावक कविताएं लिखी है।

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नागार्जुन ने अन्य पचीसी लिखी ‘अकाल और उसके बाद’ उनकी छोटी लेकिन कालजयी कविता  है। सामान्य भाषा में मुहावरे में क्लासिक का दर्जा रखने वाली यह कविता उदास शिल्प में नहीं तत्समी ध्वनियो से क्ष,भ,संस्कृत क,ख,ग,फ,ज,का फारसी शब्द बचती हुई सीट खड़ी बोली की ले और धुन में है कविता में कहानी कुतिया, चूहे, छिपकलियां, कौवे हैं । मनुष्य की पीड़ा यातना में सहचर, अन्न के अभाव की यातना में जीव जंतु कितने समान और एकत्र हैं।कानी कुत्तिया चूल्हा चक्की के पास ही सोती है।क्योंकि उसे पता है की चक्की चलेगी चूल्हा जलेगा तभी उसे कोरा – अन्य का ग्रास दिया जाएगा।भूखी है कई दिनों की और तीव्रातुत  प्रतीक्षा है, चूल्हा जलने की जगह छोड़कर वह अपना चांस नहीं खोना चाहती। घर में दाने आने के बाद चूल्हा जला तो धूंआ ऊपर उठा।

वास्तविकता से परिचय

धूंगा उठना कोई सुंदर दृश्य नहीं है।लेकिन भूख के घर में चूल्हा जलने के धुएं का उठना सुंदरतम दृश्य है। और तो और कौवे के पंख खुजलाया कौवे के पंख खुजलाना भी उसके उत्साह सा और आशा की मनस्थिति का अनुभव आंगिक चेष्टा है।कौवे ने खुजलाइ  पंख कई दिनों के बाद बड़े रचनाकार के विधान में डिटेल्स का ऐसा ही ताना-बाना होता है। पशु पक्षियों की चेस्टाओ और उनके मनोविकारों की पहचान भी उन्हें होती है |

मनुष्य नाम नाम का प्राणी  इस चराचर जगत में अकेला अद्वित्य नहीं है। उसके  सुख – दुख में उसकी सहचरी एक दुनिया है। कहते हैं कि बर्नार्ड शॉ से किसी ने पूछा कि आपकी शव यात्रा में कौन शामिल होगा (आपने किसी को बख्शा नहीं ) शॉ  ने उत्तर दिया वह जानवरों की वह विशाल संख्या जिनकी मांस मैंने नहीं खाया | शा   निरामिष थे बड़ा रचनाकार मुंह और अशक्त को वाणी देता है।

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विद्यापति, कबीर, तुलसी और निराला के उत्तराधिकारी

नागार्जुन की कविताओं की चर्चा के दौरान वक्ताओं ने लक्षित किया कि वह विद्यापति, कबीर, तुलसी और निराला के उत्तराधिकारी उत्तराधिकारी कवि हैं।विद्यापति संस्कृतज्ञ थे लेकिन देशी  भाषा में पदावली की रचना की। नागार्जुन ने हरिजन गाथा रची। शोषक प्रतिष्ठान पर करारा व्यंग्य किया।

नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता  ‘बादल को घिरते देखा है’ में नागार्जुन ने बदल को साक्षात् देखा है। इसका आश्य है कि मैं किताबी अनुभव पर नहीं अपनी आंखों से देखी हुई स्थिति पर विश्वास करता हूं। यहां तक कि कालिदास के यक्ष और मेघदूत के बारे में कहते हैं जाने दो वह कवि कल्पित था। कालिदास महान कवि थे लेकिन नागार्जुन उनको पढ़कर नहीं बादल को देखकर बादल पर कविता करते हैं। नागार्जुन प्रतिबद्ध कवि थे। समाजवादी विचारधारा से प्रतिबंध उनकी अनेक कविताएं तात्कालिक घटनाओं पर लिखी गई है, लेकिन वह क्षणजीवी नहीं है। बार-बार याद आकर प्रासंगिक होती है।

ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के आने पर उन्होंने लिखा था आओ रानी हम ढोएंगे पालकी। इस घटना को कई दशक बीत चुके हैं लेकिन अभी बुश के भारत आगमन पर यह पंक्ति प्रासंगिक लगी और इस समय कॉमनवेल्थ गेम की तैयारियों को देख कर भी हम ढोएंगे पालकी कितनी सामूहिक लग रही है ?  नागार्जुन प्रतिबंध कवि  हैं लेकिन वह अपनी आंखें देखी यानी अपनी अनुभूति के आग्रह पर विचारधारा को तोड़ते भी हैं वह वामपंथी पार्टियों और उनके नेताओं की खबर भी लेते हैं।

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जन्मशती समारोह की इस ऐतिहासिक गोष्टी में खगेंद्र ठाकुर, कमला प्रसाद, राजेंद्र राजन, चौथीराम यादव, अरुण कुमार वैद्य, प्रकाश, बृज कुमार पांडे, विश्वनाथ त्रिपाठी और अन्य स्थानीय साहित्यकारों ने शिरकत की गोष्ठी के बाद कवि सम्मेलन हुआ और उसके बाद एक इप्टा का रंगमंचीय कार्यक्रम भी

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निष्कर्ष –

कवि नागार्जुन आधुनिक कवि थे, वह मुख्यतः प्रगतिशील कवियों में गिने गए। उनकी लेखनी में विभिन्न प्रकार के मध्यकालीन तथा आदि कवियों की छवि देखने को मिली।उन्हें तुलसीदास का उत्तराधिकारी कहां गया तो कभी उनकी समानता कबीरदास से की गई। कबीर दास की फक्कड़ बोली, तुलसीदास की सांस्कृतिक विरासत के साथ विद्यापति की झलक भी उनके साहित्य में देखने को मिलती है।कवि नागार्जुन का संपूर्ण साहित्य को देखने पर स्पष्ट होता है कि उन्होंने सदैव घुमक्कड़ जीवन जिया तथा उनका विषय क्षेत्र आंचलिक रहा। संबंधित विषय से प्रश्न पूछने के लिए कमेंट बॉक्स में लिखें।

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