काव्य का स्वरूप एवं भेद। महाकाव्य। खंडकाव्य , मुक्तक काव्य

हिंदी साहित्य विश्व की सर्वश्रेष्ठ साहित्यों में से एक है, जिसमें सभी रसों का आस्वादन किया जाता है। इस साहित्य को श्रेष्ठ बनाने में निश्चित रूप से साहित्यिक व्याकरण का महत्व होता है।

इस लेख में आप उन समस्त बिंदुओं तथा काव्य से संबंधित विचारों का विस्तृत रूप से अध्ययन करेंगे। यह लेख हिंदी साहित्य तथा काव्य को जानने के लिए कारगर है।

Kaavya ka swaroop काव्य का स्वरूप एवं भेद

कविता के चार सौंदर्य तत्व है – भाव सौंदर्य , विचार सौंदर्य , नाद सौंदर्य और अप्रस्तुत – योजना का सौंदर्य। इन्हे निम्नलिखित रुप में स्पष्ट किया गया है –

१ भाव सौंदर्य  Bhaav saundarya –

प्रेम , करुणा , क्रोध , हर्ष , उत्साह आदि का विभिन्न परिस्थितियों में मर्मस्पर्शी चित्रण ही भाव सौंदर्य  है। भाव सौंदर्य को ही साहित्य शास्त्रों ने रस कहा है।

प्राचीन आचार्यों ने रस को काव्य की आत्मा माना है। श्रृंगार रस , वीर रस , हास्य रस , करुण , रौद्र , शांत , भयानक , अद्भुत तथा वीभत्स – नौ  रस कविता में माने जाते हैं।

परवर्ती आचार्यों ने वात्सल्य और भक्ति को भी अलग रस माना  है। सूर  के बाल वर्णन में वात्सल्य का गोपी प्रेम में ‘ श्रृंगार ‘ का भूषण की शिवा बावनी में ‘ वीर रस ‘ का चित्रण है।

२ विचार सौंदर्य Vichar saundarya 

विचारों की उच्चता से काव्य में गरिमा आती है। गरिमापूर्ण कविताएं प्रेरणादायक भी सिद्ध होती है। उत्तम विचारों एवं नैतिक मूल्यों के कारण ही कबीर , रहीम , तुलसी और वृंद के नीति परख दोहे और गिरधर की कुंडलियां अमर है।

इनसे जीवन के व्यवहारिक शिक्षा अनुभव तथा प्रेरणा प्राप्त होती है।

आज की कविता में विचार सौंदर्य के प्रचुर  उदाहरण मिलते हैं। गुप्त जी की कविता में राष्ट्रीयता देशप्रेम आदि का विचार सौंदर्य है।

दिनकर के काव्य में सत्य , अहिंसा और अन्य मानवीय मूल्य है। प्रसाद की कविता में राष्ट्रीयता संस्कृति और गौरवपूर्ण अतीत के रूप में विचारों का सौंदर्य देखा जा सकता है।

आधुनिक प्रगतिवादी कवि जनसाधारण के चित्र शोषित एवं दीन – हीनों  के प्रति सहानुभूति शोषकों के प्रति विरोध आदि प्रगतिवादी विचारों का ही वर्णन करते हैं।

३ नाद सौंदर्य Naad saundarya 

कविता छंदबद्ध रचना है। छंद – नाद सौंदर्य  की सृष्टि करता है। छंद के द्वारा ही कविता में लय , तुक , गति और प्रवाह का समावेश होता है।

वर्ण और शब्द के सार्थक और समुचित विन्यास से कविता में नाद सौंदर्य और संगीतात्मक ता आ जाती है तथा कविता का सौंदर्य बढ़ जाता है।

यह सौंदर्य श्रोता और पाठक के हृदय में आकर्षण पैदा करता है। वर्णों की बार – बार आवृत्ति तथा विभिन्न अर्थ वाले एक ही शब्द के बार-बार प्रयोग से भी कविता में नाद सौंदर्य का समावेश होता है जैसे-

खग कुल कुल सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा।

यहां पक्षियों के कलरव में नाद -सौंदर्य  को देखा जा सकता है। कवि ने शब्दों के माध्यम से नाद – सौंदर्य  के साथ पक्षियों के समुदाय और हिलते हुए पत्तों का चित्र भी प्रस्तुत कर दिया है ।

‘ धन घमंड नभ गरजत घोरा ‘ अथवा ‘ कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि ‘ मैं मेघों का गर्जन – तर्जन तथा नूपुर की ध्वनि का सुमधुर स्वर है ।

इन दोनों ही स्थलों पर नाद सौंदर्य ने भाव को स्पष्ट किया है और नाद – बिंब को साकार कर भाव को गरिमा भी प्रदान की है।
इसी प्रकार ‘ घनन घनन बजे उठी गरज , तत्क्षण रणभेरी ‘ मैं मानो रणभेरी प्रत्यक्ष ही बज उठी है । आदि मध्य अथवा अंत में तुकांत शब्दों में प्रयोग से भी नाद  सौंदर्य उत्पन्न होता है ।उदाहरणार्थ –

ढलमल ढलमल चंचल अंचल झलमल झलमल तारा ।

इन पंक्तियों में नदी का कल-कल निनाद मुखरित हो उठा है पदों की आवृत्ति से भी नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है जैसे –

हमको लिख्यो है कहा , हमको लिख्यौ है कहा,
हमको लिख्यो है कहा कहन सबैं लगी।

४ अप्रस्तुत योजना का सौंदर्य Aprastut yojna ka saundarya

कवि विभिन्न दृश्यों , रूपों तथा तथ्यों का मर्मस्पर्शी और हृदयग्राही बनाने के लिए अप्रस्तुतों का सहारा लेता है ।

अप्रस्तुत योजना में यह आवश्यक है कि उपमेय के लिए जिस उपमान की प्रकृत के लिए जिस  अप्रकृत की और प्रस्तुत के लिए जिस अप्रस्तुत की योजना की जाए उसमें सादृश्य अवश्य हो ।

सादृश्य के साथ-साथ उसमें जिस वस्तु व्यापार और गुण के सदृश्य वस्तु व्यापार और गुण का समावेश किया जाए , वह उसके भाव के अनुकूल हो । इन अप्रस्तुतों के सहयोग से कवि भाव सौंदर्य की अनुभूति को सुलभ बनाता है ।

कभी रूप साम्य धर्म साम्य कभी प्रभाव साम्य आधार पर दृश्य बिंब उभारकर काव्य सौंदर्य को व्यंजित करता है।

काव्य का स्वरूप

कविता काव्य के वास्तविक स्वरुप को समझने के लिए हम इसे दो उपशीर्षक को बाह्य स्वरूप और आंतरिक स्वरूप में विभक्त कर सकते हैं।

बाह्य स्वरूप 

कविता के बाह्य स्वरूप के अंतर्गत निम्नलिखित छः तत्वों का समावेश किया गया है –

१ लय 

कविता के बाह्य रूप में लय ही उसका सबसे प्रमुख तत्व है ।लय ही हमारे जीवन का आधार है । प्रकृति के हर कार्य में जैसे सूर्योदय , सूर्यास्त , ऋतुओं का आना – जाना आदि में भी लय के दर्शन किए जा सकते हैं ।

भाषा के प्रवाह में उतार चढ़ाव होते रहते हैं और इन्ही उतार-चढ़ावों के परिणाम स्वरुप नए का जन्म होता है ।

कविता में नए के प्रयोग से विशेष प्रभाव उत्पन्न होता है यदि यह कहा जाए की कविता का आनंद एक सीमा तक लय  पर ही निर्भर करता है तो अतिश्योक्ति ना होगी शब्दों को एक विशेष क्रम संयोजन प्रदान करने से कविता में स्वभावत लय आ जाती है उदाहरण-

(क) मेरो सब पुरुषारथ थाको
विपति बंटावन बंधुबाहु बिनु करौं भरोसो काको?                                            गीतावली से

(ख) नील परिधान बीच सुकुमार
खुल रहा मृदुल अधखुला अंग
खिला हो ज्यों बिजली का फूल
मेघ बन बीच गुलाबी रंग                                                                              कामायनी से

उपर्युक्त पंक्तियों में शब्द संयोजन बहुत ही अच्छे ढंग से किया गया है किसी भी शब्द का स्थान बदल देने से लय भंग हो जाती है आधुनिक कविता तुकांत नहीं बल्कि उनमें भी शब्द और अर्थ के आधार पर नए का ध्यान रखा जाता है।

२ तुक

सामान्यतया आदि काल से ही हिंदी कविता तुकांत होती आई है संस्कृत में कविता प्रायः अतुकांत होती है।

तुकांत होने का कारण कविता में गेयता  आ जाती है। आधुनिक हिंदी कविता प्रायः अतुकांत ही है।

इस प्रकार यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि  कविता का तुकांत होना अनिवार्य नहीं है। इतना अवश्य है कि तुकांत कविता जैसे दोहा , चौपाई , कुंडलियां , कवित , सवैया आदि को स्मरण करना आसान होता है।

३ छंद

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छंद  को परिभाषित करते हुए लिखा है कि छंद  वास्तव में बंधी हुई लय  के भिन्न-भिन्न ढांचों  का योग है। जो एक निश्चित लंबाई का होता है।

लय , छंद , स्वर के उतार चढ़ाव स्वर के छोटे-छोटे के ढांचे ही है जो किसी छंद के चरण के भीतर न्यस्त  रहे हैं।

छंदों का निर्धारण किसी एक पंक्ति या चरण में दिए गए वर्ण शब्द मात्राओं आदि के आधार पर किया जाता है।

मध्य युग तक की संपूर्ण हिंदी कविता विभिन्न चरणों में ही लिखी गई है , जिनमें चोपाई , दोहा , सोरठा , कवित , सवैया , कुंडलियां आदि प्रमुख आए हैं।

जिससे प्राचीन छंदों के प्रयोग लगभग समाप्त हो गए हैं तथापि  आज की कविता में भी आवश्यकतानुसार छंद बना कर उनमें मात्राओं के संयोजन की परिपाटी चल पड़ी है।

४ शब्द योजना

कविता का सौंदर्य उपर्युक्त शब्द चयन द्वारा ही निखरता है तथापि साहित्य की हर विधा में उपयुक्त शब्द चयन आवश्यक होता है। तथापि कविता में सही शब्द संयोजन बहुत अधिक अनिवार्य है।

भारतीय काव्यशास्त्र में 3 शब्द शक्तियों का निरूपण है – अभिधा , लक्षणा और व्यन्जना। (अभिधा सामान्य अर्थ का , लक्षणा  संबंधित अर्थ का , तथा व्यंजना दोनों ही अर्थों में विलक्षण अर्थ का बोध कराती है ) व्यंजना की बहुलता से कविता में चार चांद लग जाते हैं।

कविता में नाद सौंदर्य शब्द संयोजन पर भी निर्भर करता है निम्नलिखित उदाहरण में शब्द संयोजन का ही चमत्कार दृष्टिगत होता है –

पपीहों  की  वह पिन पुकार।

निर्झरों  की भारी झरझर

झींगुरों की झीनी झंकार

घनों की गुरु गंभीर गहर

बिंदुओं की छनती झंकार

दादरी के वे दूसरे स्वर

हृदय हरते थे विविध प्रकार

शैल प्रवास के प्रश्नोत्तर। ।                                          सुमित्रानंदन पंत

५ चित्रात्मक भाषा

जनमानस में कविता की लोकप्रियता जिन कारणों से बढ़ी है उनमें एक कारण चित्रात्मक भाषा का प्रयोग भी है। चित्रात्मक भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि इसके प्रयोग से थोड़े से शब्दों में ही अधिक भावों का प्रकाशन किया जा सकता है उदाहरणार्थ –

(क) मेरो मन अनत कहां सुख पावे

जैसे उड़ी जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवे। ।

(ख) कौन हो तुम बसंत के दूत

विरस पतझड़ में अति सुकुमार

घर तिमिर में चपला की रेख

तपन में शीतल मंद बयार। ।                                                  जयशंकर प्रसाद

६ अलंकार

अलंकारों की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्यों ने कहा है कि अलंकार के बिना कविता संभव नहीं है। वैसे तो अलंकार कि कई परिभाषाएं हो सकती है लेकिन सर्वमान्य तथ्य यह है कि जिस प्रयोग से अभिव्यक्ति में विशेष सौंदर्य और अर्थवत्ता आ जाती है उसे अलंकार कहते हैं।

कवि कभी किसी बात को प्रत्यक्ष ना कहकर उसे घुमा-फिराकर कहता है तो कभी साम्य स्थापित करता है।

वह कभी तुलना करता है तो कभी भाव का अधिक उत्कर्ष देने के लिए बात को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करता है।

यह सब अलंकार के ही भिन्न भिन्न विधान है। अलंकार की सामान्यता दो श्रेणियां शब्दालंकार और अर्थालंकार है इन अलंकारों के अनेक भेद व उपभेद हैं जिनको निम्नवत समझा जा सकता है –

अप्रस्तुत वस्तु योजना के अलंकार – उपमा , रूपक , उत्प्रेक्षा आदि।
वाक्य – वक्रता के अलंकार – व्याजस्तुति , समासोक्ति आदि।
वर्ण – विन्यास के अलंकार – अनुप्रास आदि।

आंतरिक स्वरूप

कविता के आंतरिक तत्व के माध्यम से ही कविता की आत्मा को समझा जा सकता है।  वस्तुतः गद्य और पद्य में अंतर उनके बाहरी रूप के कारण नहीं होता वरन यह भेद उनकी आत्मा में भिन्नता के कारण होता है।

इनमें अनुभूति और भावों की प्रमुखता का विशेष महत्व है इन का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है।

( 1 ) अनुभूति की तीव्रता –

सामान्यतया यह सर्वमान्य उक्ति है कि गधे का संबंध मस्तिष्क से है और काव्य का संबंध हृदय से। इस प्रकार का संबंध अनुभूति में तीव्रता के कारण होता है।

सामान्य जनों की अपेक्षा कवि बहुत अधिक संवेदनशील होता है। बाल्मीकि ने भी जब क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मारे जाते हुए देखा था तो उनके मुख से शिकारी के प्रति शाप के रूप में श्लोक ही फूट पड़ा था।

इससे इस बात की पुष्टि होती है की कविता हृदय की वस्तु है सुमित्रानंदन पंत ने भी लिखा है –

वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
उमड़ आंखों से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान

जीवन के सुख-दुख के प्रति कवि की प्रतिक्रिया कविता के रूप में फूट पड़ती है। कविता रखते समय जैसी अनुभूति कवि को होती है वैसी ही अनुभूति वह पाठकों के मन में भी जगाना चाहता है। इसमें सफल कविता एक अच्छी कविता मानी जाती है।

( 2 ) अनुभूति की व्यापकता –

प्रसिद्ध उक्ति है ” जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि ” कहने का तात्पर्य यह है कि कविता में अनुभूति की तीव्रता के साथ-साथ व्यापकता भी विद्यमान होती है।

कई बार सामान्यजन वहां तक नहीं पहुंच पाते जहां पर कवि का ध्यान पहुंच जाता है। यह वस्तुएं दृश्य या घटनाएं कवि के हृदय में जो भाव जागृत करते हैं उसे ही अनुभूति की व्यापकता कहते हैं।

कवि के अध्ययन में हमें जीवन के विविध पक्षों का ज्ञान होता है और जीवन के इन विविध पक्षों का ज्ञान ही हमारी अनुभूति को व्यापक बनाता है।

( 3 ) कल्पनाशीलता

कविता कहने का ढंग वास्तव में कविता की संजीवनी शक्ति है , जो उसमे प्राण संचार करती है। कविता की रचना करते समय कुछ ऐसी शब्दावली का प्रयोग करते हैं जो हमारी कल्पना शक्ति को बढ़ाती है।

प्राचीन आचार्यों के अनुसार कवि की कथन शैली मन की आत्मिक शक्ति को स्वतः उदबु करती है।

विविध अलंकारों का सौंदर्य कल्पना पर ही आधारित होता है , परंतु यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि कल्पनाशीलता जब हृदय की अनुभूति पर आधारित होती है तब ही कविता सार्थक होती है। कल्पना कलाबाजी नहीं होनी चाहिए।

( 4 ) रसात्मकता और सौंदर्यबोध

शब्द और अर्थ कविता के शरीर हैं तो रस कविता का प्राण। रस को कविता की आत्मा भी कहा जाता है। कविता को पढ़ते पढ़ने पर जागृत होने वाली आनंदमयी अनुभूति ही रस है।

रसास्वादन ही कविता का परम ध्येय माना जाता है। कविता के दो पक्ष होते हैं भाव पक्ष एवं विभाव पक्ष। किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति विशेष अवस्थाओं में जो मानसिक स्थिति होती है उसे ‘ भाव ‘ कहते हैं , तथा जिस वस्तु या व्यक्ति के प्रति वह भाव व्यक्ति होता है वह ‘ विभाव ‘ कहलाता है। विभाव के दो भेद होते हैं आलंबन और उद्दीपन

भाव और विभाव की भांति अनुभाव की भी एक स्थिति होती है। भाव , विभाव और अनुभाव के पारस्परिक संयोजन से रस की उत्पत्ति होती है। कविता के विषय की दृष्टि से रसों के नौ भेद माने गए हैं जिनमें वीर , शांत, रुद्र , श्रृंगार आदि प्रमुख रस हैं।

जहां तक सौंदर्यबोध का प्रश्न है कविता का अनुशीलन इस विषय में पर्याप्त सहायक सिद्ध होता है।

इस संदर्भ में प्रकृति सौंदर्य का उदाहरण लिया जा सकता है। प्रकृति सौंदर्य के विषय में कोई कविता पढ़कर हमारा ध्यान प्रकृति के छिपे हुए सौंदर्य की ओर आकृष्ट होने लगता है।

परिवर्तन संसार का नियम है। आधुनिक युग में व्यक्तिवादी प्रवृत्तियां कुछ इस प्रकार विकसित हुई है कि सौंदर्य अब दृष्टा की सौंदर्य बोधक चेतना में अवस्थित माना जाता है ना कि किसी वस्तु या दृश्य में।

यही कारण है कि आज का कवि छोटी और सुंदर न दिखने वाली वस्तु में भी विराट के दर्शन करता है। छिपकली , चूहे , चीटियां , मकड़ी , धूल की ढेरी , सूखी घास – फूस आदि पर भी आज का कवि बड़ी सहजता के साथ रचना करता है।

( 5 ) भावों का उदात्तिकरण –

यद्धपि कविता का उद्देश्य उपदेश देना नहीं होता , तथापि कवि इस प्रकार घात-प्रतिघात एवं जीवन की विभिन्न उलझनों को अपनी कविता में उतरता है कि हमें निर्दयता , क्रूरता , धूर्तता , कुटिलता , अभिमान , दंभ आदि के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है और हम सत्यता , सहृदयता , सदस्यता , सहिष्णुता आदि के प्रति आकृष्ट होने लगते हैं। इसी को भावों का उदारीकरण कहते हैं।

जिससे काव्य में गरिमा भी आ आती है भावों की उदात्तता से अभी प्रेरित होकर बहुधा कवि महापुरुषों के जीवन को आधार बनाकर कविता करते हैं।

तुलसीकृत रामचरितमानस इसका अनुपम उदाहरण है। कई बार ऐसा भी होता है काव्य और आधुनिक युग के मैं प्रगतिवादी रचनाएं ऐसे ही आंदोलनों की उपज है।

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निष्कर्ष –

उपरोक्त अध्ययन से हमने पाया काव्य के विभिन्न स्वरूप है जो साहित्य में प्रयुक्त होकर उन्हें एक नया आयाम प्रदान करते हैं जिन्हें प्रसिद्धि दिलाने में सहायता करते हैं इसमें अलंकार रस सौंदर्य भाव आदि की विशेष भूमिका रहती है जिसका प्रयोग होने से साहित्य की सौंदर्य वृद्धि होती है।

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