यशोधरा मैथलीशरण गुप्त की नारी भावना maithili sharan gupt ki nari bhavna

यशोधरा मैथिलीशरण गुप्त की कालजई रचना है इसके माध्यम से गुप्ता जी ने नारी के भावनाओं को उद्घाटित किया है। उनके त्याग और समर्पण के अद्वितीय भाव को उकेरने का प्रयास किया गया है।

पुरुष प्रधान समाज में नारी के त्याग को नजरअंदाज किया गया था, जिसे गुप्तजी ने अपने साहित्य में प्रधान बना दिया। उन्होंने यशोधरा, उर्मिला जैसे उपेक्षित नारियों को उचित सम्मान दिलाने का प्रयत्न किया।

आज के लेख में यशोधरा काव्य में मैथिलीशरण गुप्त की नारी के संदर्भ में क्या भावना है, उस पर विस्तार से चर्चा करेंगे और यशोधरा के त्याग चरित्र और समर्पण की भावना से अवगत होंगे।

यशोधरा मैथलीशरण गुप्त की नारी भावना maithili sharan gupt ki nari bhavna

गुप्तजी चेतना प्रवण कवि है। युग की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना और युग- बोध को आत्मसात करना उनके लिए सहज था।

यशोधरा घटना- प्रधान काव्य ना होकर चरित्र -प्रधान और काव्य प्रधान है। उनका केंद्र सिद्धार्थ ना होकर यशोधरा है , और उसी के मानसिक विकास दिखाने तथा मनोभावों का विश्लेषण करने के लिए घटनाओं का अनुषांगिक महत्व दिया गया है। उन्हें यशोधरा से जोड़ने के लिए कवि का आया स्पष्ट झलकता है।

धाराप्रवाह बीच-बीच में टूट गया है इसका कारण गुप्त जी की विभक्त आस्था और मानसिकता  और दुविधा भी है।

गुप्त जी ने अपने काव्य में उन नारियों को स्थान दिया जो काव्य ग्रंथ में सदा के लिए उपेक्षित पात्र बन गई थी। जैसे केकई , मंथरा , उर्मिला , यशोधरा , आदि उनके काव्य गुरु ‘ महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ‘ हैं उंहीं के मार्गदर्शन पर उन्होंने काव्य लिखना आरंभ किया था।

” करते तुलसी भी कैसे मानस नाद

   महावीर का यदि उन्हें मिलता नहीं प्रसाद।।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सफल प्रबंधन काव्य की कसौटी बताते हुए लिखा था ” जिस कवि में कथा के मार्मिक और भावात्मक स्थलों को पहचानने की जितनी अधिक क्षमता होगी वह उतना ही उत्कृष्ट कोटि का प्रबंध काव्य होगा”

जिसका ध्यान गुप्त जी ने यशोधरा में सदैव रखा है।

यशोधरा मैथिलीशरण गुप्त का विरह वर्णन

वेदना की अग्नि में तपकर प्रेम की मलिनता गल जाती है। कवियों ने मानव हृदय की सामान्य भाव भूमि पर विरह की ऐसी गंगा प्रवाहित की है जिस की धारा में हृदय का सारा  कलुष  वह जाता है।

विरह की प्रतिभा  गुप्त जी के हृदय में यशोधरा का रूप धारण कर अवतरित हुई है।यशोधरा का पृष्ठ-पृष्ठ उसके आंसुओं से गिला हो उठा है।

वियोग के समय वियोग अधिक दारूण होता है। प्रिय के प्रवास के समय न जाने कितने भाव विरहिणी के हृदय में उदित होते हैं , और मिला के हृदय में भी वह उदित हुए होंगे पर वह पति के मार्ग में ना आकर सब कुछ सहने के लिए तैयार हो जाती है-

“हे मन तू प्रिय पथ का विघ्न ना बन।।”

प्राचीन विरह वर्णन की प्रणाली के अंतर्गत आचार्यों ने जिस 10 कामदशाओं का उल्लेख किया है ।उनमें से सबका अनुसरण तथा उपयोग तो आधुनिक कवि नहीं करते परंतु अभिलाषा , चिंता , स्मृति , गुण , कथन , उद्धेग, उन्माद ,आदि स्वभाविक दशाएं स्वतः विरह  काव्य में आ जाती है।

साकेत में भी इन का समावेश हुआ है अतीत की स्मृतियों की टीस  रह-रहकर उठती है , और उर्मिला की भावनाओं को तीव्र कर देती है। जिससे वह अर्ध मुरझा अवस्था में प्रलाप करने लगती है।

इसी प्रलाप अवस्था में काल्पनिक सखियां बनाकर वह सुरभि, गूंगी निंदिया , सारिका , चातकी, आदि से अपनी करुणा कथा कहती है।

उर्मिला में अपने प्रिय लक्ष्य के प्रति वह समर्पण की अद्भुत भावना है जो अन्यत्र नहीं है वह अपने प्रिय के लिए सब कुछ समर्पित करने के लिए प्रस्तुत है।

वह इस भाव को प्रकट करती है कि सारी रात बैठे-बैठे बीत बीत गई फिर तो स्वप्न भी नहीं आया।

प्रिय के दर्शन भी हो सके। तारे भी उड़ गए क्या वह अब प्रभात की किरणों को गीने? इस भाव को व्यक्त करती हुई वह अपनी सखी से कह रही है।

सिद्धार्थ द्वारा अपने परित्याग से यशोधरा को हार्दिक क्लेश होता है ।वह यह समझती है कि उसके स्वामी ने उसे अच्छी तरह से नहीं समझा।

यदि उन्होंने उसे ठीक से पहचाना होता तो वह उसे ऐसे ही छोड़कर नहीं जाते उसकी अनुज्ञा लेकर जाते। चोरी चोरी घर छोड़कर उन्होंने समस्त नारी समाज को कलंकित किया है।

वह प्रश्न करती है कि क्या नारियां वास्तव में वासना की चेरी है ? उसे हृदय से इस प्रश्न का स्पष्ट ही नकारात्मक उत्तर मिलता है-यशोधरा को अपने स्वामी से शिकायत यह है –

” मुझको बहुत उन्होंने माना

फिर भी क्या पूरा पहचाना

मैंने मुख्य उसी को जाना

जो भी मन में लाते

सखि वे मुझसे कहकर जाते।।”

यशोधरा एक चरित्र प्रधान काव्य है।

वस्तुतः इस ग्रंथ की रचना ही उपेक्षित नारी यशोधरा के चरित्र को ऊंचा उठाने  के लिए हुई है। उसी की करुण गाथा को ग्रंथों के उद्देश्य से गुप्त जी ने इस काव्य की रचना की है-

” अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी

आंचल में है दूध और आंखों में पानी।”

यशोधरा पति के विरह में इतनी दुखी होती है कि वह अपने पति का ही अनुसरण करती है।

उसका मानना है कि यदि मेरे पति तपस्या करें सभी सांसारिक कष्ट सहे तो मैं राज का भोग क्यों करूं ? इस कारण वह अपने सिर के बाल कटवा लेती है। जो कि नारी का मुख्य श्रृंगार है।

यशोधरा पति परायणा  है।

यशोधरा जब भी वियोग को नहीं सह पाती तो अपने को इस  जगत   से छुटकारा पाने के लिए प्राण विसर्जन भी नहीं कर पाती क्योंकि सिद्धार्थ ने यशोधरा को राहुल का पालन पोषण की जिम्मेदारी छोड़ कर गए थे-

“स्वामी मुझको मरने का भी देने गए अधिकार

छोड़ गए मुझ पर अपने उस राहुल का भार।।”

यशोधरा का मानना है कि सिद्धार्थ ने जो कृत्य किया उससे सभी नारी जाती का अपमान  है। उन्होंने रात में सोते बच्चे व पत्नी को छोड़ कर जाना नारी समाज के लिए कलंक है।

यशोधरा कहती है कि उन्होंने मुझको जाना ही नहीं यदि वह मुझे अच्छी तरह से जान पाते तो ऐसा कदाचित नहीं करते , क्योंकि मैं उनके मार्ग में  कभी बाधा नहीं बनती इस कृत्य से उसे हार्दिक क्लेश होता है-

” सिद्धि हेतु स्वामी गए यह गौरव की बात

पर चोरी चोरी गए यही बड़ा आघात।।”

सिद्धार्थ के जाने के बाद यशोधरा को अधिक पीड़ा होती है। उसका इस समय कोई साथी नहीं है। वह अपने घर में ही आज पराई हो गई है। सिद्धार्थ ने जिस प्रकार त्याग किया है उससे नारी जाती को अधिक कष्ट होता है , क्योंकि वह समाज में एकता की दृष्टि से देखा जाता है। यशोधरा पति परायणा है अपने पति के त्याग में उसे अधिक पीड़ा होती है। उसके आंखों से निरंतर बादल के समान वर्षा होती रहती है-

” जल में शतदल तुल्य सरसते

तुम घर रहते हम न तरसते

देखो दो-दो मेघ बरसते

मैं प्यासी की प्यासी आओ हो बनवासी।।”

यशोधरा विरह वेदना को श्रेयस्कर मानती है।

क्योंकि उसके कारण वह सदैव सजग रहती है और समाधि में लीन रहती है। वह अपने अंतर में ही प्रिय के दर्शन कर लेती है। जायसी की नागमती की भांति वह भी अपना राजधानी पर भूल सामान्य स्त्री के समान आचरण करती है।

यशोधरा ने  विरह वर्णन के प्रसंग में कतिपय ऐसे कार्यक्रमों का भी उल्लेख किया है। जिसमें ‘उर्मिला’ की सहायता उदारता लोकमंगल की कामना आदि प्रवृतियों पर भी प्रकाश पड़ता है।

चित्रकारी , संगीत , आदि के अतिरिक्त वह परिवार के कामों रसोई बनाने सांसों की सेवा करने आदि में व्यस्त रह कर अपना समय काटती है।

वह ऐसे काम भी करती है जिसमें प्रजा का कल्याण होता है। प्रोषितपतिकाओ को बुलाकर उनकी दुख गाथा सुनना ,पुर बाला सखा और उन्हें विविध ललित कलाओं का ज्ञान प्रदान करना आदि इसी प्रकार के कार्य है-

” सूखा कंठ पसीना छूटा मृगतृष्णा की माया

झुलसी दृष्टि अंधेरा दिखा दूर गई वह छाया।।”

यशोधरा के तपस्या से विरह जनहित  तापसे यह धरती जल रही है।

प्रियतम के विरह में केवल मुझे ही नहीं बल्कि सबको कष्ट सहन करना पड़ रहा है। गुप्त जी की यशोधरा में सूर की गोपियों की भांति के ईर्ष्या  की भावना नहीं रखती। सूर की गोपियां तो मधुबन को संबोधन करते हुए कहती है-

” मधुबन तुम कत रहत हरे

विरह वियोग श्याम सुंदर के ठाड़े क्यों न जरे।।”

गुप्त जी की यशोधरा और तथा उर्मिला का विरह एकांतिक नहीं है। वह शुक्ल जी के शब्दों में ” सांपिन भई सेजिया और बैरिन भई रतिया ” तक सीमित नहीं इसका विस्तार एक और महल की चारदीवारी को लांग कर प्रसाद से संलग्न उपवन तक है , और दूसरी और गृहस्थ जीवन में कर्तव्य पालन और नगर के कल्याण मंगल की चिंता से भी है।

यदि वह एकांत में अधिक रहती भी है तो उसका कारण यह है कि उसकी दयनीय दशा देख उसकी तीनों सांसे क्षुब्ध होने लगती है।

प्रिय वियोग का उसे दुख है किंतु वह यह समझ कर हृदय को सांत्वना देती है कि उसकी मलिन गुजरी में राहुल जैसा लाल छुपा है।

मां यशोधरा अब उस शिशु को पुचकारती  तथा चुमती है। कभी खिलाती पिलाती है और कभी प्यार करती है। स्वयं गलगल कर पुत्र को पालती पोषती है।

आरंभ में तो दुखी नहीं यशोधरा राहुल के रोने पर खींच व्यक्त करती है किंतु धीरे धीरे उसकी वृतियां राहुल में केंद्रित हो जाती है और दिन-रात की परिचर्चा में लगी रहती है-

” बेटा मैं तो हूं रोने को

तेरे सारे मल धोने को

हंस तू है सब कुछ होने को।।”

अपनी विरह वेदना को छुपाने के लिए कभी कभी वह राहुल के साथ खेलती है-

“ठहर बाल गोपाल ,कन्हैया ,राहुल, राजा भैया

कैसे धाऊं ,पाऊं तुमको ,हार गई मैं गई मैं दैया।।”

विरहिणी यशोधरा सदैव प्रियतम के ध्यान में लीन रहती है , और उसके गुणों का स्मरण कर  और भी दुखित हो जाती है।

जब उसका हृदय भर आता है तो वह अपने स्वामी के गुणों के विषय में दूसरों को बताकर हृदय का भार हलका कर लेती है। विरह दग्धा यशोधरा के लिए उसके स्वामी के गुणों का स्मरण ही सहारा है।

यशोधरा को प्रकृति के उपवनों में भी प्रियतम का ही रूप दृष्टिगत होता है वह सूर की गोपियों की तरह उपवन को नहीं कोसती उसे जलने को नहीं कहती बल्कि उसे ऐसा प्रतीत होता है कि गौतम के मंगलमय भाव ही इन फूलों में फूट पड़े हैं-

” स्वामी के सद्भाव फैलकर फूल-फूल में फूटे

उन्हें खोजने को ही मानो नूतन निर्झर छूटे।।”

उद्वेग की स्थिति में यशोधरा को रम्य  पदार्थ की निरस्त जान पड़ते हैं हृदय वेदना बोझिल है इसलिए वह त्रिविध समीर को भी भर्त्सना करती है-

” पवन तू शीतल मंद सुगंध

ईधर-किधर आ भटक रहा है ?उधर उधर को अंध

तेरा भार सहे न सहे यह मेरे अबल स्कंद

किंतु बिगाड़ न दे ये सांसे तेरा बना प्रबंध।।”

अंत – अंत तक यशोधरा इस प्रकार का वियोग सहती है क्योंकि वह इसे सहना अपना पत्नी धर्म मानती है-

” धर्म लिए जाता आज मुझे उसी और है।।”

यशोधरा को यह विश्वास है कि जिस प्रकार सिद्धार्थ सिद्धि पाने को गए हैं उसी प्रकार वह लौट भी आएंगे और अपना गृहस्थ बार फिर से उठाएंगे-

” गए लौट भी वे आवेंगे

कुछ अपूर्ण अनुपम लावेंगे

रोते प्राण उन्हें पावेंगे

पर क्या गाते-गाते।।”

यशोधरा का मानना है कि भक्त कभी भगवान के पास नहीं जाते स्वयं भगवान चलकर भक्तों के पास आते हैं-

भक्त  नहीं जाते हैं आते हैं भगवान।।

निष्कर्ष

मैथिलीशरण गुप्त का स्थान द्विवेदी युग के कवियों में निर्भ्रांत  रूप से सर्वोच्च है। राष्ट्रीय जागरण को व्यापक रूप में साहित्य की अंतर्वस्तु बनाकर द्विवेदी युग में मैथिलीशरण गुप्त ने देश की जनता के साथ ध्वनि और विस्तृत संपर्क स्थापित किया है।

उन्होंने सर्व धर्म समन्वय के प्रति सम्मान आदर और आत्मीयता के भाव प्रकट किए उन्होंने परंपरागत स्त्री को आधुनिक संदर्भों में लाने का प्रयास किया है।

उर्मिला यशोधरा जैनी हिडिंबा , कैकई , मंथरा ,आदि के चरित्रों को परंपरागत नारी विषयक अवस्थ दृष्टिकोण से हटाकर एक अपेक्षित और स्वस्थ दृष्टिकोण प्रदान किया है।

गुप्त जी ने नारी को ऊंचा उठाने का प्रयास किया है वह यशोधरा के आगे बुद्ध को झुकाते हैं।

उन्हें अंत में नारी के महत्व को स्वीकार करना पड़ता है-

” एक नहीं दो दो मात्राएं नर से बढ़कर नारी।।”

जब सिद्धार्थ गौतम बुद्ध बनकर वापस आते हैं। तब वह स्त्री की महत्ता को स्वीकारते हैं तथा यशोधरा से माफी मांगते हैं-

” दीन ना हो गोपे सुनो हीन नहीं नारी कभी।।”

जिस प्रकार की धारणा समाज में स्त्रियों के प्रति है लोग समाज स्त्री को कोमल और वासना की चेरी मानते हैं उन को समझाने के लिए गुप्त जी ने यशोधरा में कहा है-

“स्वयं सुसज्जित करके क्षण मे

प्रियतम के प्राणों के पन में

हम्हीं भेज देती है रण में

क्षात्र धर्म के नाते।।”

अतः यशोधरा गुप्त जी  की श्रेष्ठ कृति है जो नवजागरण के आवाज है। जिस में परंपरागत नारी विषयक अस्वस्थ दृष्टिकोण से हटकर एक अपेक्षित और स्वस्थ दृष्टिकोण प्रदान किया गया है।

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5 thoughts on “यशोधरा मैथलीशरण गुप्त की नारी भावना maithili sharan gupt ki nari bhavna”

  1. आपने अच्छा लिखा है परन्तु आपने यशोधरा के चरित्र को एक गर्विनी,और मनिनी स्त्री के रूप में प्रस्तुत नहीं किया है आपके लेख में यशोधरा का चरित्र चित्रण उन महिलाओं के रूप में है जो अपनी स्थिति से समझौता कर लेती है और उसके पास जो है उसी में खुश रहने की कोशिश करती है साथ है उसका(यशोधरा) खुद का स्वाभिमान भी नहीं झलकता आपके लेख में। अतः आपके यशोधरा की नारी व्याख्या ठीक उस नारी की तरह है जो अपने हालातों से समझौता कर लेती है परन्तु मैथिलीशरण गुप्त की यशोधरा ऐसी नहीं है।

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  2. मरण सुन्दर बन आया री!
    शरण मेरे मन भाया री!

    आली, मेरे मनस्ताप से पिघला वह इस बार,
    रहा कराल कठोर काल सो हुआ सत्य सुकुमार
    इस पंक्ति का भावार्थ

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  3. Yasodhara ke madhyam se byakt nari manobigyan ki chrcha kijiye? iska answer apke is site main nhi hai kya aap bata sakte hen iska answar

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