Meera bai ke pad aur dohe

मीरा बाई भक्ति कालीन सगुण मार्गी कृष्ण शाखा की अग्रणी कवित्री तथा उपासक थी। मीराबाई कृष्ण को अपना पति मानती थी और उनकी उपासना किया करती थी। कृष्ण को पति के रूप में पाने की लालसा में उन्होंने जोगन बनना स्वीकार किया। लोक मर्यादा को छोड़कर साधु – संतों का साथ लिया। समाज उन्हें कई बार मारने की कोशिश करता रहा किंतु कृष्ण की भक्ति के आगे वह सब षड्यंत्र विफल रहा।

7 से अधिक मीरा बाई के पद और दोहे ( व्याख्या सहित )

मीरा बाई का जन्म 1516 ईसवी में हुआ। उदयपुर के महाराजा भोजराज से इनकी विवाह हुआ , जो महाराणा सांगा के पुत्र थे। कुछ समय बाद भोजराज की मृत्यु हो गई और मीराबाई अब संसार में अकेली रह गई थी। उस समय की परंपरा सती प्रथा की थी, लोगों ने मीराबाई के साथ भी सती होने का पुरजोर समर्थन करते रहे। किंतु मीराबाई ने सती होना स्वीकार नहीं किया और कृष्ण को अपना प्रियतम अपना पति मान कर साधु संतो की संगति की और अपना भक्ति का मार्ग चुना। इसके लिए उन्होंने राज-पाट छोड़कर एक जोगन की भांति रहने लगी। कभी द्वारिका कभी वृंदावन कभी मथुरा अपने प्रियतम की खोज में घूमा करती और गीत गाती।

माना जाता है द्वारिका में 1546 ईसवी में वह भगवान कृष्ण की मूर्ति में समा गई। यही उनके अंतिम दिनों की बात प्रचलित है। उनकी मृत्यु का कभी कोई प्रमाण नहीं मिला। आज हम मीराबाई के प्रसिद्ध दोहे और पदावलीयों का विस्तार से उल्लेख कर रहे हैं। हमारा भरसक प्रयास रहेगा कि प्रत्येक पद का व्याख्या सटीक कर सकें और आपके ज्ञान के झूले में छोटी सी पूंजी संचित कर सकें –

मन रे परसी हरी के चरण

सुभाग शीतल कमल कोमल

त्रिविध ज्वालाहरण

जिन चरण ध्रुव अटल किन्ही रख अपनी शरण,

जिन चरण ब्रह्माण भेद्यो 

नख शिखा सिर धरण,

जिन चरण प्रभु परसी लीन्हे करी गौतम करण,

जिन चरण फनी नाग 

नाथ्यो गोप लीला करण,

जिन चरण गोबर्धन धर्यो गर्व माधव हरण

दासी मीरा लाल गिरीधर आगम तारण तारण

मीरा मगन भाई

लिसतें तो मीरा मगनभाई

 व्याख्या

प्रस्तुत पद में मीराबाई ने अपने आराध्य श्री कृष्ण के चरणों की महिमा का बखान किया है। जिसे वह सदैव सेवा करती हैं, उन चरणों ने कितने जीवन का उद्धार किया उसका बखान स्वयं अपने मुख से कर रही हैं। वह अपने मन को समझा रही है कि, हे मन तू जिस शीतल कोमल कमल रूपी चरण की सेवा कर रही है। इस चरण ने हिरण कश्यप के बेटे ध्रुव को कभी अपने से अलग नहीं होने दिया।

इन चरणों ने सदैव ब्राह्मणों की सेवा की है, उनकी रक्षा की है इसी चरण में गौतम को उद्धार किया, और यमुना से शेषनाग का भय समाप्त किया। ग्वालों की रक्षा अधिक वर्षा से गोवर्धन पर्वत उठाकर किया। ऐसे चरण जो इस लोक में तो साथ देते ही हैं, परलोक में भी कभी साथ नहीं छोड़ते ऐसे चरण की सेवा करना सौभाग्य की बात होती है।

Read other related articles

कबीर के दोहे व्याख्या सहित

Rahim ke dohe with meaning 

Rani laxmi bai poem

Maharana Pratap poem

meera ke pad summary
meera ke pad summary

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो ..

वस्तु अमोलिक दी मेरे सतगुरु किरपा करि अपनायो. पायो जी मैंने…

जनम जनम की पूंजी पाई जग में सभी खोवायो. पायो जी मैंने…

खरचै न खूटै चोर न लूटै दिन दिन बढ़त सवायो. पायो जी मैंने…

सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तर आयो. पायो जी मैंने…

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर हरष हरष जस गायो. पायो जी मैंने…

व्याख्या 

मीराबाई प्रेम और भक्ति में इतनी सराबोर है कि उसे राम नाम की भक्ति प्राप्त होने के बाद उसे दुनिया कि कोई और चिंता नहीं है।  मीराबाई को राम नाम के रतन की प्राप्ति हो गई है , जो अमूल्य है। ऐसी अमूल्य वस्तु भक्ति के अलावा और कुछ नहीं हो सकती। जो गुरु के द्वारा प्राप्त हुई है, यह जन्म – जन्म की पूंजी अर्थात कमाई होती है।

जिसे आसानी से प्राप्त नहीं की जा सकती , इसके लिए साधना की आवश्यकता होती है।

यह ऐसी पूंजी है जो लूटने का या खोने का भय नहीं होती यह सदैव भवसागर से पार लगाने का धन है। यह केवल सत्य का आचरण और प्रभु की भक्ति के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है। यह पूंजी नहीं खर्च की जाती है और ना ही बांटी जाती है। यह सतगुरु से मिलने की एकमात्र निधि और कमाई है, मेरा जो अपने ईश्वर, मित्र, सखा और पति के रूप में कृष्ण की सदैव भक्ति करती है।वैसे अमूल्य निधि को प्राप्त कर स्वयं को सौभाग्यशाली मान रही हैं।

meera ke pad
meera ke pad

मीरा बाई के प्रसिद्ध दोहे 

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई

जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई||

व्याख्या

मीराबाई स्वयं कृष्ण की पत्नी मानती हैं, और श्री कृष्ण मोर मुकुट वाले की सेवा एक पत्नी की भांति करती है। उसके अलावा वह किसी और की चिंता नहीं करती।  जग से उसे कोई मतलब नहीं वह केवल अपने प्रियतम के आराधना में और मिलन के लिए व्याकुल दरबदर भटकती फिरती है। अपने कृष्ण, अपने पति के आने की प्रतीक्षा करती रहती है और उनकी सेवा में भक्ति का द्वार खोलती जाती हैं। 

तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई|

छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई||

व्याख्या

मीराबाई कहती है कि यह दुनिया केवल दिखावे की है। यहां कोई अपना सगा नहीं है, सब एक दूसरे से मतलब के यार हैं और जितने भी रिश्ते-नाते बंधु – भ्रात  हैं वह सब किसी काम के नहीं है, व्यर्थ हैं। लोग कुछ भी कहते रहे कितने भी ताने देते रहे यह सब मैंने पहले ही छोड़ दिया है और अब मैं कृष्ण के अलावा किसी और से लगाओ नहीं रखती। जहां कृष्ण की भक्ति पति के रूप में हो वहां किसी और का सुनना भी ठीक नहीं इसलिए मीराबाई ने लोक-लाज की तनिक भी चिंता ना करते हुए कृष्ण की अनन्य रूप से भक्ति करती है।

मतवारो बादल आयें रे

हरी को संदेसों कछु न लायें रे

दादुर मोर पापीहा बोले

कोएल सबद सुनावे रे

काली अंधियारी बिजली चमके

बिरहिना अती दर्पाये रे

मन रे परसी हरी के चरण

लिसतें तो मन रे परसी हरी के चरण

व्याख्या

प्रस्तुत पद में कृष्ण के विरह में मीरा की अवस्था का चित्रण किया गया है। बिरहाग्नि में जलती हुई मीरा प्रकृति को अपने दुख का कारण मान रही है। ठंड और सावन का ऐसा महीना होता है जब प्रियतम के पास ना होने पर मिलने की तीव्र इच्छा जागती है। मीरा कहती है मतवारे काले बादल आ गए हैं, किंतु हरि का संदेशा कुछ भी लेकर नहीं आए हैं। अर्थात हरि का अभी तक कुछ पता नहीं चल रहा है, दादुर-मोर-पपीहा-कोयल सब अपनी खुशी में मस्त हैं।काली अंधियारी में बादल और भयंकर प्रतीत होते हैं, बिजली कड़कती है तो ऐसा जान पड़ता है कि काल साक्षात रुप में सामने खड़ा है। किंतु ऐसे में भी मेरे प्रियतम श्री कृष्ण का कोई खबर नहीं है, और ना ही मुझे उनके चरणों की सेवा करने का अवसर प्राप्त हो रहा है।

मीरा बाई की कविता व्याख्या सहित

अच्छे मीठे फल चाख चाख, बेर लाई भीलणी।

ऎसी कहा अचारवती, रूप नहीं एक रती।

नीचे कुल ओछी जात, अति ही कुचीलणी।

जूठे फल लीन्हे राम, प्रेम की प्रतीत त्राण।

उँच नीच जाने नहीं, रस की रसीलणी।

ऎसी कहा वेद पढी, छिन में विमाण चढी।

हरि जू सू बाँध्यो हेत, बैकुण्ठ में झूलणी।

दास मीरां तरै सोई, ऎसी प्रीति करै जोइ।

पतित पावन प्रभु, गोकुल अहीरणी।

व्याख्या

प्रस्तुत पद में मीरा बाई ने त्रेता युग की राम और सबरी के भक्ति प्रेम का वर्णन किया है। किस प्रकार भक्ति के वशीभूत शबरी ने अपने प्रिय राम के लिए बेर ( फल )लाए थे और उन बेर मैं कुछ खराबी ना हो इसलिए सभी को चखा अर्थात झूठा किया और प्रेम से अपने प्रभु को समर्पित किया। प्रभु भी भक्ति के वशीभूत उन सभी बेर को खाए, ऐसी भक्ति कहीं और देखने को नहीं मिलती। एक बूढ़ी कुरूप स्त्री के भक्ति रस में प्रभु स्वयं खो गए एक छोटी जाति की स्त्री किस प्रकार राम के भक्ति में इस जगत से पार हुई। साक्षात प्रभु के द्वारा उन्हें बैकुंठ का आसन मिला, ऐसी ही भक्ति मैं अपने आराध्य कृष्ण से करती हूं कि मुझे अपनी दासी स्वीकार कर सेवा अवसर दें,और उस भीलनी के समान मुझे भी अपने चरण रज का अवसर दें।

अब तौ हरी नाम लौ लागी।
सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्‌यो बैरागीं॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी।
मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥
पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥

Read other related articles

Dewsena ka geet | देवसेना का गीत। जयशंकर प्रसाद।

संवदिया फणीश्वर नाथ रेणु। sawadiya kahani in hindi | fanishwar nath renu ki kahani

परशुराम की प्रतीक्षा | रामधारी सिंह दिनकर | परसुराम की प्रतीक्षा full hindi notes |

राम – परशुराम – लक्ष्मण संवाद। सीता स्वयम्बर।ram , laxman ,parsuram samwaad |

कवीर का चरित्र चित्रण।कबीर की कुछ चारित्रिक विशेषता| kabir character analysis |

सूर के पदों का संक्षिप्त परिचय। भ्रमरगीत। उद्धव पर गोपियों का व्यंग।

भ्रमर गीत। उद्धव का गोपियों को संदेश।

godan notes in hindi | गोदान की मूल समस्या। गोदान एक नज़र में | गोदान notes

प्रेमचंद कथा जगत एवं साहित्य क्षेत्र | godan notes | munshi premchand

godan | malti | मालती का चरित्र चित्रण | गोदान | प्रेमचंद

Follow us here

Follow us on Facebook

Subscribe us on YouTube

Sharing is caring

5 thoughts on “Meera bai ke pad aur dohe”

  1. अगर आप यदि इसमें कुछ जोड़ना चाहते हैं तो आप कमेंट अथवा ईमेल के माध्यम से हमे सामग्री भेज सकते हैं।

    Reply
  2. Meera ki bhakti aur unki vani kewal aur kewal bhagwan krishna ki hi yaad dilati hai. Bahut ache bhai, aise hi likhte rahiye.

    Reply
  3. आपने मीरा बाई के शानदार दोहे हमारे साथ शेयर किए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

    Reply

Leave a Comment