भाव या अनुभूति | आचार्य रामचंद्र शुक्ल | ramchandr shukl

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भाव या अनुभूति (आचार्य रामचंद्र शुक्ल)

आचार्य शुक्ल के अनुसार मानव की मूल अनुभूतियाँ दो है सुख तथा दुःख।

भाव या मनोविकार की परिभाषा देते हुए लिखते हैं “नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनसे सम्बन्ध रखने वाली इच्छा की अनेकरूपता भिन्न -भिन्न अनुभूति भाव या मनोविकार कहलाते है।

अनुभूति मुख्यतः दो प्रकार की होती है – सुखात्मक तथा दुखात्मक। सुख वर्ग में रति , यश ,उत्साह , आदि भाव आते है। और दुःख वर्ग में ईर्ष्या ,भाव ,क्रोध ,घृणा ,करुणा ,आदि।

यदि शरीर में सुई चुभने की पीड़ा हो तो केवल दुःख होगा पर यदि पता चले कि सुई चभने वाला कोई दुष्ट व्यक्ति है तो दुःख की भावना के साथ – साथ क्रोध और प्रतिहिंसा के भाव उदय होंगे।

प्रिय – मिलन से भी आनंद मिलता है और वीरता से भी। परन्तु वीरता का आनंद प्रिय -मिलन के आनंद से भिन्न है।

लज्जा भी के कारण से भी आती है और गलत काम से भी। कंम्पन भय के कारण भी होता है और उत्साह या क्रोध के कारण भी।

बालक की अनुभूतियों तथा भावों की तुलना में व्यस्क  व्यक्ति की अनुभूतियाँ अधिक व्यापक और जटिल है।

क्रोध का भाव लाल-लाल नेत्रों से उतना नहीं होता जितना की इन शब्दों से कि तेरी हड्डी पसली चूर-चूर कर दूंगा।

शुक्ला जी मानते हैं कि भावों की सत्ता सर्वोपरि है।

व्यक्ति के चरित्र का उत्कर्ष और पतन  दोनों मनोभावों के अधीन है।

भावों से प्रेरित होकर ही अनेक धर्म संप्रदाय वर्ग बन गए हैं।

शुक्ल जी शस्त्र बल , शारीरिक शक्ति की तुलना में मन की आंतरिक शक्ति को अधिक बताते हैं।

मानसिक भाव प्रवृतियों को बदलने से समाज भी बदल सकता है।

स्वार्थ संकुचित मनोवृत्ति का त्याग कर मनुष्य अपनी आत्मा का उत्कर्ष करता है।

शुक्ला जी तुलसी की तरह लोकमंगलवादी साहित्यकार थे।

उन्होंने आह्वान किया कि मनुष्य अपने हृदय में संवेदनशील कोमल एवं उदार बनाएं।

सबकी  लाभ – हानि को अपनी लाभ – हानि मानकर आचरण करें काव्य हमें यही शिक्षा देता है “सर्वे भवंतु सुखिनः “|

मनोविकार या भाव जीवन में महत्वपूर्ण उपादान है उनके कारण ही मनुष्य देवता या दानव बनता है।

इन्हीं के आधार पर हम ‘राम’ और ‘रावण’ का ‘हिटलर’ और ‘गांधी’ का निर्णय करते हैं।

उनके द्वारा लिखित निबंधों में काव्य में ‘रहस्यवाद’ और काव्य में ‘अभिव्यंजनावाद’ प्रमुख है।

 

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