सुमित्रा नंदन पंत। प्रकृति के सुकुमार कवि।छायावाद।
सुमित्रा नंदन पंत के कोमल चितेरे का वर्णन
प्रस्तावना
कविवर सुमित्रा नंदन पंत छायावादी काव्यधारा के सर्वथा अनूठे और विशिष्ट कवि हैं।सुमित्रा नंदन पंत जी को छायावाद का चौथा स्तंभ माना जाता है। दूसरे शब्दों में कविवर सुमित्रा नंदन पंत का छायावादी काव्यधारा को संवारने बनाने में अद्भुत योगदान है। छायावादी काव्यधारा को एक नई गति देने में सुमित्रा नंदन पंत की भूमिका उल्लेखनीय रही है।
सुमित्रा नंदन पंत के काव्य की सर्वोपरि विशेषता यह है कि विषय वस्तु की भिन्नता होने पर भी उनमें कल्पना की स्वच्छंद उड़ान , प्रकृति के प्रति आकर्षण और प्रकृति एवं मानव जीवन के कोमल और सरस पक्षों के प्रति अटूट आग्रह है। अपने काव्य में कल्पना के महत्व को बताते हुए सुमित्रा नंदन पंत ने लिखा है –
“मैं कल्पना के सत्य को सबसे बड़ा सत्य मानता हूं , मेरी कल्पना को जिन – जिन विचारधाराओं से प्रेरणा मिली है , उन सब का समीकरण करने की मैंने चेष्टा की है। मेरा विचार है कि ” वीणा ” से लेकर ” ग्राम्या ” तक अपनी सभी रचनाओं में मैंने अपनी कल्पना को ही वाणी दी है। ”
सुमित्रा नंदन पंत जी का मानना है कि जब उन्होंने कविता लिखना आरंभ किया था , तब वह काव्य का मानव जीवन में क्या उपयोगिता है नहीं जानते थे। और वह यह कहते थे कि ना मैं यही जानता था कि उस समय काव्य जगत में कौन सी शक्तियां कार्य कर रही थी। जेसे एक दीपक दूसरे दीपक को जलाता है उसी प्रकार द्विवेदी युग के कवियों की कृतियों ने उनके हृदय को अपने सौंदर्य से स्पर्श किया और उसमें एक प्रेरणा की शिखा जगा दी।
सुमित्रा नंदन पंत का जन्म उत्तर भारत के जनपद का कसौनी में हुआ कसौनी जनपद प्रकृति की सुंदरता के बीच बसा हुआ है। कसौनी की उन जुगनुओं की जगमगाती हुई एकांत घाटी का अवाक् सौंदर्य , उनकी रचनाओं में अनेक विस्मय – भरी और भावनाओं में प्रकट हुआ है –
“उस फैली हरियाली में
कौन अकेली खेल रही मां ,
वह अपनी वय वाली में?”
उषा , संध्या , फूल , कपोल , कलरव , औसो के वन और नदी निर्झर उनके एकांकी किशोर मन को सदैव अपनी ओर आकर्षित करते रहते हैं , और सौंदर्य के अनेक सद्य:स्फूत उपकरणों से प्रकृति की मनोरम मूर्ति रच कर उनकी कल्पना समय – समय उसे काव्य मंदिर में प्रतिष्ठित करती रहती है।उन्होंने प्रकृति वर्णन की प्रेरणा स्रोत कसौनी का वर्णन भी अपने एक कवि की पंक्ति में बड़े ही मनोरम तरीके से किया है –
“आरोही हिमगिरी चरणों पर
रहा ग्राम वह मरकत मणिकण
श्रद्धानत – आरोहण के प्रति
मुग्ध प्रकृति का आत्म – समर्पण
सांझ – प्रात स्वर्णिम शिखरों से
द्वाभायें बरसाती वैभव
ध्यानमग्न निःस्वर निसर्ग निज
दिव्य रुप का करता अनुभव। ”
सुमित्रा नंदन पंत का प्रकृति चित्रण
छायावादी कविता की एक प्रमुख विशेषता रही है की व्यक्तिगत स्वतंत्रता इसके लिए इस धारा के कवियों ने अपनी आत्मनिर्भरव्यक्ति के लिए स्वच्छंद कल्पना और प्रकृति का सहारा लिया।पंत के काव्य में प्रकृति के प्रति अपार प्रेम और कल्पना की ऊंची उड़ान है।सुमित्रा नंदन पंत को अपने परिवेश से ही प्रकृति प्रेम प्राप्त हुआ है।पंत के काव्य में प्रकृति के प्रति अपार प्रेम और कल्पना की ऊंची उड़ान है।
सुमित्रा नंदन पंत को अपने परिवेश से ही प्रकृति प्रेम प्राप्त हुआ है अपने प्रकृति परिवेश के विषय में उन्होंने लिखा है – ” कविता की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरक्षण से मिली है , जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कुमाचल प्रदेश को है कवि जीवन से पहले भी मुझे याद है मैं घंटो एकांत में बैठा प्रकृति दृश्य को एकटक देखा करता था।
” यह प्राकृतिक परिवेश किसी अन्य छायावादी कवि को नहीं मिला थासुमित्रा नंदन पंत का यह साहचर्य प्रकृति प्रेम उन की प्रथम रचना ” वीणा ” से लेकर “लोकायतन” नामक महाकाव्य तक समान रुप से देखा जा सकता है। अपने कवि जीवन के आरंभिक दौर में पंत प्राकृतिक सौंदर्य से इतने अभिभूत थे कि नारी सौंदर्य के आकर्षण को भी उसके सम्मुख न्यून मान लिया था –
” छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल – जाल में
उलझा दूं में कैसे लोचन ?
सुमित्रा नंदन पंत के यहां प्रकृति निर्जीव जड़ वस्तु होकर एक साकार और सजीव सत्ता के रुप में उपस्थित हुई है , उसका एक – एक अणु प्रत्येक उपकरण कभी मन में जिज्ञासा उत्पन्न करता है संध्या , प्रातः , बादल , वर्षा , वसंत , नदी , निर्झर , भ्रमर , तितली , पक्षी आदि सभी उसके मन और को आंदोलित करते हैं। यहां संध्या का एक जिज्ञासा पूर्ण चित्र दर्शनीय है –
“कौन तुम रूपसी कौन
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज माया में छवि आप
सुनहला फैला केश कलाप
मंत्र मधुर मृदु मौन ;
इस पूरी कविता में संध्या को एक आकर्षक युवती के रूप में मौन मंथर गति से पृथ्वी पर पदार्पण करते हुए दिखा कर कवि ने संध्या का मानवीकरण किया है। प्रकृति का यह मानवीकरण छायावादी काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। चांदनी , बादल , छाया , ज्योत्स्ना , किरण आदि प्रकृति से संबंधित अनेक विषयों पर सुमित्रा नंदन पंत ने स्वतंत्र रुप से कविताएं लिखी है , इनमें प्रकृति के दुर्लभ मनोरम चित्र प्रस्तुत हुए हैं।
सुमित्रा नंदन पंत की बहुत सी प्रकृति संबंधी कविताओं में उनकी जिज्ञासा भावना के साथ ही रहस्य भावना भी व्यक्त हुई है। “प्रथम रश्मि ” , ” मौन निमंत्रण ” आदि जैसे बहुत सी कविताएं तो मात्र जिज्ञासा भाव को व्यक्त करती है। इसके लिए ” प्रथम रश्मि ” का एक उदाहरण पर्याप्त होगा –
” प्रथम रश्मि का आना रंगीनी
तूने कैसे पहचाना
कहां-कहां है बाल विहंगिणी
पाया तूने यह गाना। ”
इसी तरह ” मौन निमंत्रण ” में भी कवि की किशोरावस्था की जिज्ञासा ही प्रमुख है , लेकिन सुमित्रा नंदन पंत की प्रकृति से संबंधित ऐसी बहुत सी कविताएं भी है जिनमें उनके गहन एवं सूक्ष्म निरीक्षण के साथ ही इनकी आध्यात्मिक मान्यता भी व्यक्त हुई है। इस दृष्टि से ” नौका विहार ” , ” एक तारा ” आदि कविताएं विशेष उल्लेखनीय है। यहां उदाहरण के लिए संध्या का एक चित्र है-
” गंगा के जल चल में निर्मल कुम्हला किरणों का रक्तोपल
है मूंद चुका अपने मृदु दल
लहरों पर स्वर्ण रेखा सुंदर पड़ गई नील , ज्यों अधरों पर
अरुणाई प्रखर शिशिर से डर। ”
यहां गंगा के जल में रक्तोपल ( लाल कमल ) के समान सूर्य के बिंब का डूबना और गंगा की लहरों पर संध्या की सुनहरी आभा का धीरे-धीरे नीलिमा में परिवर्तित होना आदि कवि के सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण का और उनकी गहन रंग चेतना का परिचायक है। लेकिन कविता के अंत में कवि ने एक तारे के बाद बहुत से तारों के उदय को आत्मा और यह जग दर्शन कह कर
” एकोहम बहुस्यामि ” की दार्शनिक मान्यता को भी प्रतिपादित कर दिया है। इसी तरह ” नौका विहार ” में भी कवि ने ग्रीष्मकालीन गंगा का एक तापस बाला के रूप में भावभीना चित्रण करते हुए अंत में जगत की शाश्वतता का स्पष्ट संकेत दिया है।
पंत का लगाओ प्रकृति के कोमल और मनोरम स्वरूप के प्रति ही अधिक रहा है , लेकिन कभी कभार इनकी दृष्टि यथार्थ से प्रेरित होकर प्रकृति के कठोर रूप की और भी गई है। वर्षा कालीन रात्रि का एक चित्र है –
“पपीहों की यह पीन पुकार , निर्झरों की भारी झरझर
झींगुरों की झीनी झंकार , घनो की गुरु गंभीर घहर
बिंदुओं की छनती झनकार , दादूरों के वे दूहरे स्वर। ”
इसी प्रकार वायु वेग से झकझोर गए भीम आकार नीम के वृक्ष की स्थिति को कवि ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है –
” झूम-झूम झुक – झुक कर , भीम नीम तरु निर्भर
सिहर-सिहर थर – थर – थर करता सर – मर चर – मर। ”
अपनी ” कलरव ” शीर्षक कविता में पंत जी ने संध्या का यथार्थ किंतु अत्यंत भावप्रवण चित्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है –
बांसों का झुरमुट / संध्या का छुटपुट,
है चहक रही चिड़िया टी वी टी टी टूट – टूट
ये नाम रहे निज घर का मग
कुछ भ्रमजीवी धर डगमग डग
माटी है जीवन भारी पग। ”
यहां बांसों के झुरमुट में चहकती हुई चिड़ियों और भारी पग तथा उदास मन से अपने घरों को लौटने वाले मजदूरों की विरोधपूर्ण स्थिति के माध्यम से कवि ने संध्या का अत्यंत व्यंजक स्वरूप प्रस्तुत किया है। प्रकृति विषयक दृष्टिकोण को प्रकट करते हुए पंत जी आधुनिक कवि के पर्यायलोचन में लिखते हैं –
” साधारणता प्रकृति के सुंदर रुप ही ने मुझे अधिक लुभाया है। ” स्पष्ट है कि पंत को प्रकृति का सुंदर रूप ही अत्यधिक आकर्षक लगा है और उसी का काव्य में उपयोग भी किया है। प्रकृति का सुंदर रूप ग्रहण करने के कारण ही पंत जी मे मनन एवं चिंतन की शक्ति आई और वे हिंदी साहित्य को स्वर्ण काव्य प्रदान कर सके। यदि उन्हें बाढ़ और उल्का की प्रकृति से लगाव होता है तो , निश्चय ही वह निराशावादी होते।
पंत जैसा स्वर्ण काव्य किसी निराश मानस से अद्भुत नहीं हो सकता था , यह सत्य है कि प्रकृति का उग्र रूप मुझे कम रुचिता है यदि में संघर्ष प्रिय अथवा निराशावादी होता तो ” नेचर रेड इन टूथ एंड कलाऊ ” वाला कठोर रूप जो जीव विज्ञान का सत्य है मुझे अपनी और अधिक खींचता है। पंत जी के काव्य में प्रकृति चित्रण विभिन्न रुपों में मिलता है।
आलंबन रूप
जब प्रकृति में किसी प्रकार की भावना का अध्याहार न कर प्रकृति का ज्यों का क्यों वर्णन किया जाता है। जो वह आलंबन रूप होता है , पंत जी के काव्य में प्रकृति चित्रण का यह रूप पर्याप्त मिलता है –
” गिरि का गौरव गाकर हग्ग फर – फर मंद में नस – नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों से सुंदर झड़ते हैं झाग भरे निर्झर। ”
उद्दीपन रूप
प्रकृति व्यक्ति की भावनाओं को भी उदीप्त करती है। उसका वह उद्दीपन रूप होता है उस रूप में प्रकृति का वर्णन बहुत ही अधिक हुआ है विशेषता विरह काव्य में।
अलंकारिक रूप
इस रूप में प्रकृति का उपयोग अलंकारों के प्रयोग के लिए किया जाता है –
” मेरा पावस ऋतु जीवन
मानस – सा उमड़ा अपार मन
गहरे धुंधले धुले सांवले
मेघों से मेरे भरे नयन। ”
पृष्ठभूमि के रूप में
भावनाओं को अधिक प्रभुविष्णु बनाने के लिए प्रकृति का पृष्ठभूमि के रूप में वर्णन किया जाता है। पंत काव्य में ऐसे असंख्य पद है जहां इस रूप का प्रयोग किया गया है ” ग्रंथि एक तारा ” , ” नौका विहार ” आदि कविताएं इसी रूप के उदाहरणार्थ प्रस्तुत की जा सकती है।
रहस्यात्मक रूप
प्रकृति में रहस्य भावना का आरोप करना छायावाद की प्रमुख विशेषता है। अंत में भी यह भावना उपलब्ध होती है –
” क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात सिंधु में मथकर फेनाकर
बुलबुलों का व्याकुल संसार बना , बिथुरा देनी अज्ञात
उठा तब लहरों से कर कौन न जाने मुझे बुलाता मौन। ”
दार्शनिक उद्भावना प्रकृति
के माध्यम से गंभीर दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति भी की जाती है सुमित्रा नंदन पंत जी की ” नौका विहार ” और ” एक तारा ” आदि कविताएं ऐसी ही है। ” एक तारा ” के अंत में सुमित्रा नंदन पंत ने इन पंक्तियों में दार्शनिक उद्भावना की है –
जगमग जगमग नभ का आंगन
लग गया कुंद कलियों से धन
वह आत्म और यह जग – दर्शन। ”
मानवीकरण
प्रकृति में चेतन सत्ता का आरोपण ही मानवीकरण कहलाता है। छायावादी काव्य मे प्रकृति को एक चेतन सत्ता के रूप में ही देखा जाता है , जड के रूप में नहीं। छायावाद प्रकृति के इस रूप को विशेषतः अपनाकर चला है। ” संध्या ” कविता में कवि संध्या को नव युवती के रूप में चित्रित किया है –
” कहो तुम रूपसी कौन ?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी नीज छाया छबी में आप
सुनहला फैला केश कलाप
मधुर , मंथर , मृदु , मौन। ”
नारी रूप
प्रकृति का कोमल रूप ग्रहण करने के कारण ही पंत जी ने प्रकृति को नारी रूप में देखा है। ‘ चांदनी ” कविता में वह चांदनी का वर्णन किस प्रकार करते हैं –
” नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद – हंसिनी
मृदु करतल पर शशि मुख धर निरब अनिमिय एकाकिनी। ”
उपदेशात्मक
उपदेश के लिए प्रकृति का प्रयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। गोस्वामी तुलसीदास के वर्षा ऋतु वर्णन में यही प्रणाली को अपनाई गई है –
“बूंद अघात सहे गिरी कैसे खल के वचन संत सहे जेसे। ”
निष्कर्ष
पंत के काव्य में प्रकृति के विभिन्न रूप मिलते हैं जो छायावादी काव्य की विशेषता है। प्रकृति के प्रति सुकुमार दृष्टिकोण पंत जी की अपनी निजी विशेषता है। पंडित जी छायावादी कवि थे अतः छायावादी काव्य चेतना का संघर्ष मध्ययुगीन निर्मम निर्जीव जीवन परिपाटियों से था जो कुरूप छाया तथा घिनौनी काई की तरह युग मानस के दर्पण पर छाई हुई थी।
और शूद्र जटिल नैतिक सांप्रदायिकता के रूप में आकाश लता की तरह लिपट कर मन में आतंक जमाए हुई थी। दूसरा संघर्ष छायावादी चेतना का था।
उपनिषदों के दर्शन के पुनर्जागरण के युग में उनका ठीक-ठीक अभिप्राय ग्रहण करने के का वाक्य आत्म प्राण विद्या अविद्या शाश्वत अनंत अक्षर अक्षर सत्य आधी मूल्य एवं प्रतीकों का अर्थ समझ कर उन्हें युग मानस का उपयोगी अंग बनाना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उनके बाहरी विरोधियों को सुलझा कर उनमें सामंजस्य बिठाना।
यह सब अत्यंत गंभीर और आवश्यक समस्याएं थी , जिनके भूलभुलैया से बाहर निकलकर कृतिकार को मुख्य रुप से सृजनकर्ता था। सदियों से निष्क्रिय विशेषण
एवं जीवन विमुख लोकमानस को आशा सौंदर्य जीवन प्रेम श्रद्धा अवस्था आदि का भाव काव्य देकर उस में नया प्रकाश उड़ेलना था। छायावाद मुख्यता प्रेरणा का काव्य रहा है और इसलिए वह कल्पना प्रधान भी रहा।
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बहुत ही अच्छे से पंत जी के प्रकृति चित्रण को समजाया गया है।
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