51 कबीर के दोहे अर्थ सहित हिंदी में। Kabir ke dohe in hindi

संत कबीर का जीवन कठिनाइयों से भरा हुआ था परंतु फिर भी उन्होंने समाज में फैली कुरीतियों को मिटाने के लिए जीवन के अंतिम क्षणों तक प्रयत्न किया। संत कबीर समाज में फैले आडंबर और अंधविश्वास को मिटाने के लिए दोहे और पद की रचना करते थे जिनका सीधा उद्देश्य कुरीतियों पर वार करना था।

उनके दोहे और साथिया आज के युग में भी समान तरीके से लाभदायक है। क्योंकि आज भी समाज में बहुत से आडंबर और अंधविश्वास फैले हैं जिन्हें मिटाना बहुत जरूरी है। आपको हमारे लिखे गए इस लेख में ना सिर्फ कबीर के दोहे और साखियां पढ़ने को मिलेंगे बल्कि उनकी संपूर्ण व्याख्या भी प्राप्त होगी।

Table of Contents

कबीर के दोहे व्याख्या सहित

यह सभी दोहे क्रमवार लिखे गए है और प्रत्येक दोहे और पद के नीचे आपको निहित शब्द और व्याख्या पढ़ने को मिलेंगे।

पहला दोहा

पाहन पूजे हरि मिले , तो मैं पूजूं पहार

याते चाकी भली जो पीस खाए संसार। ।

निहित शब्द – पाहन – पत्थर , हरि – भगवान , पहार – पहाड़ , चाकी – अन्न पीसने वाली चक्की।

व्याख्या

कबीरदास का स्पष्ट मत है कि व्यर्थ के कर्मकांड ना किए जाएं। ईश्वर अपने हृदय में वास करते हैं लोगों को अपने हृदय में हरि को ढूंढना चाहिए , ना की विभिन्न प्रकार के आडंबर और कर्मकांड करके हरि को ढूंढना चाहिए। हिंदू लोगों के कर्मकांड पर विशेष प्रहार करते हैं और उनके मूर्ति पूजन पर अपने स्वर को मुखरित करते हैं। उनका कहना है कि पाहन अर्थात पत्थर को पूजने से यदि हरी मिलते हैं , यदि हिंदू लोगों को एक छोटे से पत्थर में प्रभु का वास मिलता है , उनका रूप दिखता है तो क्यों ना मैं पहाड़ को पूजूँ।

वह तो एक छोटे से पत्थर से भी विशाल है उसमें तो अवश्य ही ढेर सारे भगवान और प्रभु मिल सकते हैं। और यदि पत्थर पूजने से हरी नहीं मिलते हैं तो इससे तो चक्की भली है जिसमें अन्न को पीसा जाता है। उस अन्य को ग्रहण करके मानव समाज का कल्याण होता है। उसके बिना जीवन असंभव है तो क्यों ना उस चक्की की पूजा की जाए।

दूसरा दोहा

लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल।

लाली देखन मै गई मै भी हो गयी लाल। ।

निहित शब्द – लाली – रंगा हुआ , लाल – प्रभु , जित – जिधर , देखन – देखना।

विशेष – अनुप्रास अलंकार , और उत्प्रेक्षा अलंकार का मेल है।

व्याख्या –

कबीरदास यहां अपने ईश्वर के ज्ञान प्रकाश का जिक्र करते हैं। वह कहते हैं कि यह सारी भक्ति यह सारा संसार , यह सारा ज्ञान मेरे ईश्वर का ही है। मेरे लाल का ही है जिसकी मैं पूजा करता हूं , और जिधर भी देखता हूं उधर मेरे लाल ही लाल नजर आते हैं। एक छोटे से कण में भी , एक चींटी में भी , एक सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों में भी मेरे लाल का ही वास है। उस ज्ञान उस प्राण उस जीव को देखने पर मुझे लाल ही लाल के दर्शन होते है और नजर आते हैं। स्वयं मुझमें भी मेरे प्रभु का वास नजर आता है।

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तीसरा दोहा

आए हैं तो जायेंगे राजा रंक फ़कीर।

एक सिंघासन चढ़ चले एक बंधे जंजीर। ।

निहित शब्द – राजा – महाराज , रंक – गुलाम , फ़क़ीर – घूम – घूमकर भक्ति करने वाला।

व्याख्या –

कबीरदास का नाम समाजसुधारकों में बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उन्होंने विभिन्न आडंबरों और कर्मकांडों को मिथ्या साबित किया। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि कर्म किया जाए। अर्थात अपने जन्म के उद्देश्य को पूरा किया जाए , ना कि विभिन्न आडंबरों और कर्मकांडों में फंसकर यहां का दुख भोगा जाए। वह कहते हैं कि मृत्यु सत्य है चाहे राजा हो या फकीर हो या एक बंदीगृह का एक साधारण आदमी हो। मरना अर्थात मृत्यु तो सभी के लिए समान है।

चाहे वह राजा हो या फकीर हो बस फर्क इतना है कि एक सिंहासन पर बैठे हुए जाता है और एक भिक्षाटन करते हुए चाहे एक बंदीगृह में बंदी बने बने। अर्थात कबीर दास कहते हैं मृत्यु को सत्य मानकर अपने कर्म को सुधारते हुए अपना जीवन सफल बनाना चाहिए।

चौथा दोहा

माला फेरत जुग भया , फिरा न मन का फेर।

करका मनका डार दे , मन का मनका फेर। । 

निहित शब्द – माला – जाप करने का साधन , फेरत – फेरना जाप करना , जुग – युग , करका – हाथ का , मनका – माला , डार – डाल ,फेंक देना , मन का – मष्तिष्क का , मनका – माला।

विशेष – अनुप्रास अलंकार ‘ म ‘ की आवृत्ति हो रही है।

व्याख्या –

कबीरदास का नाम समाज सुधारकों में अग्रणी रूप से लिया जाता है .वह धर्म में फैले कुरीति और अविश्वास अंधविश्वास को सिरे से नकारते हुए कहते हैं। माला फेरने से कुछ नहीं होता,  माला फेरते – फिरते युग बीत जाता है , फिर भी मन में वह सद्गति नहीं अभी जो एक प्राणी में होना चाहिए। इसलिए वह कहते हैं कि यह सब मनके के  मालाएं व्यर्थ है।  इन सबको छोड़ देना चाहिए , यह सब मन का , मन का फेर है कि माला फेरने से मन की शुद्धि होती है।

मन में सदविचार आते हैं और ईश्वर की प्राप्ति होती है।

यह सब आडंबर है अपने हृदय को अपने मस्तिष्क को स्वच्छ साफ और निश्चल रखिए ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होगी और उसे ढूंढने के लिए कहीं बाहर नहीं जाना , अपने अंदर स्वयं खोजना है।

ईश्वर अपने अंदर विराजमान है बस उसे ढूंढने की जरूरत है।

पांचवा दोहा

माया मुई न मन मुआ , मरी मरी गया सरीर।

आशा – तृष्णा ना मरी , कह गए संत कबीर। ।

निहित शब्द – माया – भ्रम , मुई – मरा ,  तृष्णा – पाने की ईक्षा।

व्याख्या  – 

कबीरदास स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि यह संसार मायाजाल है , इस मायाजाल में फंसकर लोगों की हालत मृगतृष्णा के समान हो गई है। लोग इधर-उधर भटक रहे हैं। यह भटकन उनकी मायाजाल है इसी में भटकते – भटकते एक दिन वह इस मायाजाल से बाहर निकल जाता है , अर्थात मर जाता है। लोग सांसारिक सुख और आशा तृष्णा में रहकर फंस गए हैं।  उसी माया की चाह के लिए उसकी प्राप्ति के लिए दिन – रात जतन करते रहते हैं। इससे उनकी आशा – तृष्णा भी समाप्त नहीं हो पाती है और अंत में उसी गति को प्राप्त करते हैं , जो उसकी नियति में निहित है।

तो क्यों ना इस आशा तृष्णा से मुक्ति का प्रयास किया जाना चाहिए जबकि मृत्यु सत्य है।

कबीर के दोहे जीवन में परिवर्तन लाने का एक गज़ब का साधन है |

 

छठा दोहा

 

निर्गुण राम जपो रे भाई

 

निहित शब्द – निर्गुण – जो अदृश्य हो।

व्याख्या –

कबीरदास  ‘ राम ‘ नाम के उपासक थे , किंतु उनके राम दशरथ पुत्र राम ना होकर ‘ निर्गुण ‘ , ‘ निराकार ‘ थे।  कबीरदास निर्गुण और निराकार के उपासक थे वह निरंकार रूपी ईश्वर की आराधना करने की बात करते थे।

 

Kabir ke dohe aur saakhiyan in hindi

हमारे इस पोस्ट में आपको दोहे और साखियां दोनों पढ़ने को मिलेंगे। कबीर के दोहे और साथियों के व्याख्या विस्तार में हमने इस पोस्ट में लिखा है।

सातवां दोहा

 

कस्तूरी कुंडली मृग बसे , मृग फिरे वन माहि।

ऐसे घट घट राम है , दुनिया जानत नाही

 

निहित शब्द – कस्तूरी – सुगंध जो हिरन की नाभि से उत्त्पन्न होती है , कुंडली – नाभि , मृग – हिरन ,

व्याख्या –

 इस कबीर के दोहे का अर्थ यह है की कबीरदास यहां अज्ञानता का वर्णन करते हैं। वह कहतें हाँ कि मनुष्य में किस प्रकार से अज्ञानता के वशीभूत है। स्वयं के अंदर ईश्वर के होते हुए भी बाहर यहां-वहां , तीर्थ पर ईश्वर को ढूंढते हैं। कबीरदास बताते हैं कि किस प्रकार एक कस्तूरी की गंध जो हिरण की नाभि (कुंडली) में बास करती है। कस्तूरी एक प्रकार की सुगंध है वह हिरण की नाभि में वास करती है और हिरण जगह-जगह ढूंढता फिरता है कि यह खुशबू कहां से आ रही है।

इस खोज में वह वन – वन भटकते-भटकते मर जाता है , मगर उस कस्तूरी की गंध को नहीं ढूंढ पाता।

उसी प्रकार मानव भी घट – घट राम को ढूंढते रहते हैं मगर अपने अंदर कभी राम को नहीं ढूंढते। राम का वास तो प्रत्येक मानव में है फिर भी मानव यहां-वहां मंदिर में मस्जिद में तीर्थ में ढूंढते रहते हैं।

आठवां दोहा

जल में कुंभ कुंभ में जल है , बाहर भीतर पानी।

फूटा कुंभ जल जल ही समाया , यही तथ्य कथ्यो ज्ञानी। ।

निहित शब्द – जल – पानी , कुम्भ – घडा , समाया – मिल जाना , तथ्य – बात , ज्ञानी – विद्वान।

व्याख्या  – 

इस कबीर के दोहे अर्थ यह है की उपरोक्त पंक्ति में कबीरदास के अध्यात्म का पता चलता है , वह जल और कुंभ , घड़े का उदाहरण देकर बताना चाहते हैं कि किस प्रकार शरीर के भीतर और शरीर के बाहर आत्मा का वास है , उस परमात्मा का रूप है। शरीर के मरने के बाद जो शरीर के भीतर की आत्मा है वह उस परमात्मा में लीन हो जाती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार घड़े के बाहर और भीतर जल है। घड़ा के फूटने पर जल का विलय जल में ही  हो जाता है।

ठीक उसी प्रकार जीवात्मा शरीर से मुक्त होकर परमात्मा में लीन हो जाता है।

 

नौवां दोहा

 

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ , पंडित भया न कोय ,

ढाई आखर प्रेम का , पढ़े सो पंडित होय। ।

निहित शब्द – पोथी – धार्मिक किताबों की गठरी , मुआ – मृत्यु , पंडित – विद्वान , आखर – अक्षर।

व्याख्या –

कबीरदास लोगों में व्याप्त क्रोध आदि को समाप्त करना चाहते हैं। वह प्रेम का अलख जगाना चाहते हैं। वह कहते हैं किताब और पोथी पत्रा पढ़ने से कोई पंडित अथवा विद्वान नहीं हो जाता। उसमें वह स्वभाव विद्वता नहीं आता जो एक विद्वान में आना चाहिए। वह स्वभाव वह भाव नहीं आता कि उसका क्रोध छूट जाए। वही दो अक्षर प्रेम का पढ़कर एक साधारण सा व्यक्ति पंडित हो जाता है। अर्थात उसके स्वभाव में नम्रता का समावेश आते हे। वह पांडित्य रूप ग्रहण कर लेता है। इसलिए कबीरदास कहते हैं पोथी के बजाये प्रेम की पढ़ाई करने की बात करते है।

प्रेम ही वह साधन है जिससे ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है और मानव का कल्याण कर सकती है।

 

दसवां दोहा

 

बुरा जो देखन मैं चला , बुरा ना मिलया कोय ,

जो दिल खोजा आपना , मुझसे बुरा न कोय। ।

 

निहित शब्द – कोय – कोई , अपना – अपना।

व्याख्या –

उपयुक्त पंक्ति में कबीर कहते हैं कि बुराइयां खोजते-खोजते मुझे बहुत समय हो गया है। जब मैं बुराई की खोज में निकलता हूं तो मुझे अनेकों – अनेक प्रकार की बुराइयां नजर आती है।  मैं इन बुराइयों को देख – देखकर बहुत ही आनंदित होता हूं। परन्तु जब मैंने बुराइयों को अपने भीतर खोजना आरंभ किया तो मेरे अंदर व्याप्त बुराइयों के आगे सांसारिक बुराइयां कम है। अर्थात बुराइयां व्यक्ति के अंदर समाहित होती है। उन बुराइयों को दूर करना चाहिए ना कि संसार में बुराइयों को खोजना चाहिए। पहले स्वयं की बुराई दूर होएगी उसके पश्चात ही जगत से बुराई का ह्रास हो सकेगा।

यह कबीर के दोहे हर कक्षा के छात्रों के लिए उपयोगी है |

 

ग्यारहवां दोहा

 

साधु ऐसा चाहिए , जैसा सूप सुभाय।

सार सार को गहि रहै , थोथा देई उड़ाय। ।

 

निहित शब्द – सुप – अन्न से गन्दगी को बाहर करने का साधन, सार – निचोड़ ,गहि – ग्रहण करना , थोथा – बुराई अवगुण।

व्याख्या –

कबीरदास व्यर्थ और केवल कहे जाने वाले पंडित को पंडित और साधु नहीं मानते। वह साधु उनको मानते हैं जो क्रोधी स्वभाव के नहीं होते हैं।  जिस प्रकार एक सूप  अन्न  के दाने और उसमें भरे कंकड़-पत्थर व अन्य अवशेषों को छांट कर बाहर कर देता है। ठीक साधु उसी प्रकार का होता है जो बुराइयों को अवगुणों को किनारे करते हुए उनके गुणों को ग्रहण करता है बाकी सब को त्याग देता है।

यह कबीर के दोहे हर कक्षा के छात्रों के लिए उपयोगी है |

बारहवां दोहा

 

तिनका कबहुं ना निंदिए , जो पाँवन तर होय।

कबहुं उड़ी आंखिन पड़े , तो पीर घनेरी होय। ।

 

निहित शब्द – कबहुँ -कभी , निंदिए – निंन्दा , आँखिन – आँख ,  पीर – दर्द  , घनेरी – अधिक।

व्याख्या –

कबीर कहना चाहते हैं कि किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए। चाहे एक तिनका भी हो चाहे एक कण भी हो किसी भी प्रकार की निंदा से बचना चाहिए। क्या पता वह हवा के झोंके से उड़ कर कब आंख में पड़ जाए तो दर्द असहनीय होगी इसलिए परनिंदा नहीं करना चाहिए। एक छोटे से छोटा प्राणी व व्यक्ति के महत्त्व को स्वीकारना चाहिए वह भी समय पर आपके काम आ सकता है।

या समय पर आपकी पीड़ा का कारण बन सकता है इसलिए किसी की निंन्दा से बचना चाहिए।

यह कबीर के दोहे हर कक्षा के छात्रों के लिए उपयोगी है |

 

तेरहवां  दोहा

 

धीरे – धीरे रे मना , धीरे सब कुछ होय।

माली सींचे सौ घड़ा , ऋतु आए फल होय। ।

निहित शब्द – मना – मन , सींचे – सींचना  ,  ऋतू – मौसम।

व्याख्या  –

उपर्युक्त पंक्ति में कबीरदास कहते हैं कि किसी भी कार्य को धीरे-धीरे वह संयम भाव से करना चाहिए। संयम व एकाग्रता  से किया गया कार्य ही सफल होता है। जिस प्रकार माली सौ – सौ घड़ों  से पेड़ों को सींचता है मगर उसके इस प्रकार के परिश्रम से फल की प्राप्ति नहीं होती। ऋतु के आने से ही अर्थात मौसम परिवर्तन से ही पेड़ों पर फल आता है।

अर्थात संयम हुआ धैर्य की आवश्यकता है।

चौदहवां दोहा

 

दोस पराए देखि करि , चला हसंत हसंत।

अपने याद न आवई , जिनका आदि न अंत। ।

निहित शब्द –दोस – दोष , पराय – दूसरों का , हसंत – हंसना , आदि न अंत – जिसका कोई थाह नहीं हो।

व्याख्या –

कबीर कहते हैं कि प्राय दोस्त को देखकर हंसना नहीं चाहिए , बल्कि अपने भीतर व्याप्त बुराइयों को देख कर उस पर चिंतन मनन करना चाहिए। अपने बुराइयों को सुधारना चाहिए। किस प्रकार एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के दोष को देख कर हंसता है , मुस्कुराता है। जबकि उसमें खुद बुराइयों का ढेर है , और उसके स्वयं के  बुराई का कोई आदि और अंत नहीं है।

Kabir ke dohe in Hindi
Kabir ke dohe in Hindi

 

पन्द्रहवाँ दोहा

 

जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।

मोल करो तलवार का , पड़ा रहन दो म्यान। ।

निहित शब्द – जाति – वर्ग , मोल – मूल्य  , म्यान – तलवार रखने का खोखा।

व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि साधु की जाति नहीं होती है। उसकी जाति नहीं पूछना चाहिए बल्कि साधु का ज्ञान ग्रहण करना चाहिए। साधु का ज्ञान जात – पात से परे होता है। किसी भी व्यक्ति की विद्वता उसका ज्ञान उसके जात-पात के बंधनों से मुक्त होता है। किसी भी व्यक्ति का ज्ञान ही उसका मूल्य होता है।

जिस प्रकार मयान का कोई मूल्य नहीं होता बल्कि उस में रहने वाले तलवार का मूल्य होता है।  युद्ध में मयान नहीं तलवार की पूजा की जाती है। इसी प्रकार शरीर का नहीं उसमे व्याप्त ज्ञान का मूल्य होता है जो परिश्रम और साधना से ही मिल पता है। इसलिए साधु के जात पात को नहीं उसके ज्ञान की पूजा करनी चाहिए।

यह कबीर के दोहे हर कक्षा के छात्रों के लिए उपयोगी है |

 

सोलवां दोहा

 

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय।

औरन को शीतल करे , आपहु शीतल होय। ।

निहित शब्द – वाणी – बोली , शीतल – सुख।

व्याख्या – कबीर दास कहना चाहते हैं कि लोगों को अपनी वाणी में मधुरता रखनी चाहिए शीघ्र अति शीघ्र क्रोध नहीं करना चाहिए वाणी ऐसी बोलना चाहिए जो खुद को भी सुंदर और मधुर लगे और दूसरे को सुनने वाले को भी क्रोध में आकर दया और सहानुभूति का भाव जगह यदि आप किसी क्रोधी व्यक्ति से वार्तालाप करते हैं और उससे मधुर वाणी में बात करते हैं तो वह अपने क्रोधी स्वभाव को भी त्याग सकता है वाणी में ऐसी शक्ति होती है कि एक जड़बुद्धि को भी चेतन शक्ति वाला बना देता है

यह कबीर के दोहे हर कक्षा के छात्रों के लिए उपयोगी है |

सत्रहवाँ दोहा

 

चलती चक्की देख कर , दिया कबीरा रोय।

दो पाटन के बिच में , साबुत बचा न कोय। ।

निहित शब्द – चक्की – अन्न पीसने का यंत्र , पाटन – पत्थर  , कोय – कोई।

व्याख्या  –

कबीरदास स्पष्ट तौर पर समाज में व्याप्त बुराइयों पर कटाक्ष करते हैं। वह कहते हैं कि अज्ञानता के कारण  समाज में व्याप्त कुरीतियों आदि में फंसकर एक सभ्य व्यक्ति भी पिस्ता जा रहा है। वह व्यक्ति उसी प्रकार पिस्ता जा रहा है जिस प्रकार चक्की के दो पाटों के बीच अन्न।  कबीरदास कहना चाहते हैं यह दुनिया मायाजाल है इस मायाजाल में पड़कर सभी प्रकार के मानुष पिस्ते जा रहे हैं।

चाहे छोटा हो चाहे बड़ा हो कोई भी इस मायाजाल से नहीं बच पा रहा है।

यह कबीर के दोहे हर कक्षा के छात्रों के लिए उपयोगी है और परीक्षा में भी आप इसकी सहायता ले सकते हैं |

 

अठारहवाँ दोहा

 

निंदक नियरे राखिए , आंगन कुटी छवाय।

बिन पानी साबुन बिना , निर्मल करे सुभाय। ।

निहित शब्द – निंदक – निंन्दा करने वाला , नियरे – नजदीक , कुटी – झोपडी , निर्मल – स्वच्छ , सुभाय – होना।

व्याख्या  – इस कबीर के दोहे में कबीरदास कहना चाहते हैं कि अपने पास उन लोगों को रखना चाहिए जो हमारे अवगुणों को बताएं। हमारे अवगुणों को छिपाए नहीं , मित्र ऐसे बनाएं जो मीठी-मीठी बातें ना करें बल्कि जो बुराइयां हैं उन सभी को स्पष्ट और निर्विरोध रूप से बोले।

अपनी निंदा करने और सुनने वाले बहुत ही कम लोग होते हैं।  निंदा करने वाले लोग व्यक्ति के चरित्र के निर्माण की पहली सीढ़ी होते हैं। इसलिए निंदक को अप ने पास रखना चाहिए उस से तन – मन निर्मल हो जाता है।

बुराइयां निकल जाती है और वह भी बिना साबुन पानी लगाए।

 

उनीसवाँ दोहा

 

कबीरा खड़ा बाजार में , मांगे सबकी खैर।

ना काहू से दोस्ती , ना काहू से बैर। । 

निहित शब्द – खैर – सलामती , काहू – किसी से ,  बैर – शत्रुता।

व्याख्या –  इस कबीर के दोहे में कबीरदास कहते हैं कि कबीर का किसी से ना प्रेम है न द्वेष है। कबीर को इन सब चीजों से क्या लेना वह तो ईश्वर की आराधना में निकला है ईश्वर की आराधना इन सब से परे है। कबीर सबकी खैर सबकी सलामती मांगता है। सभी सलामत रहे सभी सुखी रहें कबीर का किसी से दोस्ती नहीं है और ना ही किसी से बैर है।

 

बीसवां दोहा

 

हिंदू कहें मोहि राम पियारा , तुरक  कहें रिहमाना ।

आपस में दोऊ लरि मूए , मरम न कोऊ जाना। । 

निहित शब्द – पियारा – प्यारा , तुरक – मुसलमान , रहिमाना – अल्लाह , मुए – मरना , मरम – हाल  , कोउ – कोई।

व्याख्या –

कबीर कहते हैं कि हिंदू को राम प्यारा है और तुरकन को रहमान  अर्थात अल्लाह प्यारा है। दोनों इसी की लड़ाई लड़ते रहते हैं। आपस में इसी बात की लड़ाई है कि राम बड़ा के रहमान बड़ा। इस लड़ाई को लड़ते – लड़ते आखिर में दोनों मर जाते हैं , मगर राम नाम के रस को नहीं पी पाते प्राप्त नहीं कर पाते। कोई भी उसकी भक्ति में नहीं डूब पाता बस  तू – तू , मै – मै  करते – करते इस जगत से विदा हो जाता है।

यह कबीर के दोहे जीवन में बदलाव लाने के लिए उपयोगी है |

 

इक्कीसवाँ दोहा

 

धर्म किए धन ना घटे , नदी न घटे नीर।

अपनी आंखन देख लो , कह गये दास कबीर। । 

निहित शब्द – नीर – जल , आंखन – आँख।

व्याख्या –  कबीर कहते हैं कि जिस प्रकार एक नदी का जल लोगों के पीने से कम नहीं होता। ठीक उसी प्रकार धर्म करने से धर्म का ह्रास नहीं होता है , धर्म का विस्तार होता है उसकी वृद्धि होती है।

 

बाईसवाँ दोहा

 

कबीर तहां न जाइए , जहां जो कुल को एक

साधु गुन जाने नहीं , नाम बाप का लेत। । 

व्याख्या –

कबीरदास बुरी संगति से बचने के लिए कह रहे हैं। और वहां जाने के लिए मना कर रहे हैं जहां बाप  का आदर मान सम्मान ना हो सके। जिस घर में बेटा , बाप का नाम लेकर पुकारता है। उस घर में जाने से बचना चाहिए। उस घर में मान सम्मान नहीं मिल सकता। जिस घर में माता-पिता का सम्मान नहीं होता है।

यह कबीर के दोहे जीवन में बदलाव लाने के लिए उपयोगी है |

तेइसवां दोहा

 

जैसा भोजन खाइए , वैसा ही मन होय ।

जैसा पानी पीजिए , तैसी बानी होय। ।

निहित शब्द – बानी –  वाणी। 

व्याख्या –

कबीर कहते हैं जैसे  आचरण मे  आप रहेंगे जैसा आचरण करेंगे। वैसा ही आपका स्वभाव और आपके आचरण मैं परिवर्तन आएगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार का भोजन और पानी आप ग्रहण कीजिएगा , उसी प्रकार की सोच आपके मस्तिष्क में आएगी। अर्थात कबीर भोजन की शुद्धता और जल की शुद्धता पर बात कर रहे हैं। लोग मांसाहारी भोजन कर करके उन पशु – पक्षियों की ही सोच उनके मस्तिष्क में आ रही है ,  और जैसा अशुद्ध पानी वह ग्रहण कर रहे हैं उसी प्रकार की उनके मस्तिष्क की अशुद्धि हो रही है। उनके विचारों में  अशुद्धि हो रही है।

यह कबीर के दोहे जीवन में बदलाव लाने के लिए उपयोगी है |

चौबीसवां दोहा

 

गुरु – गोविंद दोऊ खड़े , काके लागू पाय।

बलिहारी गुरु आपने , जिन गोविंद दियो मिलाय। ।

निहित शब्द – गोविन्द – भगवान , दोउ – दोनों , काके – किसके , बलिहारी – न्यौछावर , जिन – मुझे।

व्याख्या –

कबीरदास गुरु को अधिक महत्व देते हैं। वह गुरु को ईश्वर से भी बड़ा मानते हैं। उनका मत है कि ईश्वर का दर्शन गुरु के माध्यम से ही हो सकता है। गुरु ही गुरु और गोविंद अर्थात शिक्षक और भगवान में अंतर करा  सकता है बता सकता है। अर्थात एक मानव को भगवान की पूजा से पूर्व  अपने गुरु की पूजा करनी चाहिए। एक मां बच्चे की प्रथम गुरू होती है मां  ही बच्चे को उसके पिता और अन्य लोगों का परिचय कराती है।

यह कबीर के दोहे जीवन में बदलाव लाने के लिए उपयोगी है |

पचीसवाँ दोहा

 

सतगुरु की महिमा अनंत , अनंत किया उपकार।

लोचन अनंत उघारिया अनंत दिखावण हार। ।

निहित शब्द – सतगुरु – शिक्षक  , अनंत – जिसका कोई अंत न हो  , उपकार – कृपा करना उद्धार करना , लोचन – आँख , उघारिया – खोलना  , दिखावण – दिखाना।

व्याख्या –

कबीरदास उपयुक्त पंक्ति में गुरु की महिमा का बखान कर रहे हैं। वह कहता चाहते हैं कि गुरु के माध्यम से ही हमें वह दिव्य चक्षु अथवा ज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे हम निराकार और अब निर्गुण में रूप का दर्शन कर पाते हैं। सतगुरु ही वह माध्यम है जिसके माध्यम से हमारे आंखों पर पड़े पर्दे हट सकते हैं। गुरु ही उस आवरण को हटाता है जिसके कारण हम ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाते। अर्थात निर्गुण निराकार के दर्शन नहीं कर पाते। सद्गुरु ही हमारे अंदर के चक्षु , आंखों को खोलते हैं उनके माध्यम से ही हमें अनंत , निराकार के दर्शन होते हैं।

 

कबीर की साखियाँ हिंदी में अर्थ सहित सभी कक्षा के लिए

 

बालम आवो हमारे गेह रे , तुम बिन दुखिया देह रे।

सब कोई कहे तुम्हारी नारी , मोको लगत लाज रे।

दिल से नहीं लगाया , तब लग कैसा स्नेह रे।

उनके भावे नींद ना आवे , गृह बन धरे न धीर रे।

कामिनी को है बालम प्यारा , जो प्यासे को नीर रे।

है कोई ऐसा परोपकारी , दिवसों कहे सुनाएं रे।

अब तो बेहाल कबीर भयो है , बिना देखे जीव न जाए रे। ।

निहित शब्द – बालम – पति , गेह – पास , देह – शरीर , स्नेह – प्रेम , कामिन – स्त्री।

विशेष – कामिनी को है बालम प्यारा , जो प्यासे को नीर रे। उत्प्रेक्षा अलंकार

व्याख्या

कबीरदास ईश्वर को बालम अथवा पति मानकर उनको आने / मिलने की प्रार्थना कर कर रहे हैं। जिस प्रकार एक पति से विरक्त विरहणी अपने पति के आगमन के लिए प्रार्थना करती है , ठीक उसी प्रकार कबीर दास अपने पति रूपी ईश्वर के आने की प्रार्थना कर रही हैं। बालम रूपी ईश्वर के  बिना कबीर का दिल दुखी प्रतीत हो रहा है।  लोग उसे ईश्वर की नारी बता रहे हैं , जिससे कबीर को लाज लग  रही है।

कबीरदास अपने ईश्वर से कहते हैं जब तक मुझे दिल से नहीं लगाओगे तब तक मैं यह कैसे समझूंगा कि मुझसे आपका स्नेह है। मुझे यह कैसे विश्वास जगेगा , जब तक आप की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक मुझे घर में धीरज नहीं। अर्थात मन नहीं लग रहा है जिस प्रकार एक स्त्री को उसका बालम अति प्रिय होता है। जिस प्रकार एक प्यासे को जल प्रिय होता है।  उसी प्रकार मुझे तुम प्रिय हो , है ऐसा कोई परोपकारी  जो मुझे आपकी खबर सुना सके ? आपके दर्शन करा सके ? अब तो आपके दर्शन के बिना कबीर की हालत बेहाल हो गई है।

अब आपके दर्शन के बिना जीने की इच्छा समाप्त हो चुकी है।

यह सभी कबीर के दोहे जीवन में बदलाव लाने के लिए उपयोगी है |

 

छबीसवां दोहा

 

मसिद  कागद छुयो नहीं कलम गही ना हाथ

 

निहित शब्द – मसिद  – फ़क़ीर , कागद – कागज़  , गही – गई।

व्याख्या –

कबीर स्वयं को बताते हैं कि वह कभी कागज – कलम को नहीं छुएं। उन्होंने कभी स्कूली शिक्षा ग्रहण नहीं की किंतु साधु संगति से ही उन्हें इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त हुआ है।

 

सत्ताईसवां दोहा

 

कबीर लहरि समंद की , मोती बिखरे आई।

बगुला भेद न जाने , हंसा चुनी – चुनी खाई। ।

निहित शब्द – लहरि – लहर , भेद – गुण , हंसा – हंस ,

व्याख्या  –

कबीर कहते हैं कि पूरे संसार में अज्ञानता का वास है। लोगों में अज्ञानता कूट-कूट कर भरी हुई है। समाज उन बगुलों  की भांति हो गया  है जो समुंदर की लहरों से आई मोतियों को कंकड़ पत्थर समझ कर छोड़ देता है। वही हंस उन मोतियों को चुन-चुनकर खाता है। अर्थात उन मोतियों के गुणों को वह हंस भी जानता है। ठीक हंस के समान समाज में व्याप्त बुद्धिमान विद्वान लोग समाज में व्याप्त अच्छाइयों को चुन लेते हैं और बुराइयों को बगुला रूपी जड़ बुद्धि के लिए छोड़ देते हैं।

 

अठाईसवाँ दोहा

 

जब गुन का गाहक मिले , तब गुण लाख बिकाई।

जब गुन को गाहक नहीं , तब कौड़ी बदले जाई। ।

निहित शब्द – गुन – गुण विशेषता , गाहक – ग्राहक , कौड़ी – निम्न मूल्य।

व्याख्या –

कबीर कहते हैं  गुण का सही ग्राहक मिले तो वह लाख रुपए में बिके। किंतु आज के युग में सही ग्राहक मिलना असंभव है , इसलिए वह आज कौड़ियों के भाव में बदले जाते हैं। गुण का कोई कदर नहीं है , गुण तभी महंगा बिकेगा जब सदगुण को  लोग  ग्रहण करेंगे।

यह कबीर के दोहे जीवन में बदलाव लाने के लिए उपयोगी है |

 

उन्नतीसवाँ दोहा

 

संत न छोड़े संतई जो कोटिक मिले असंत।

चंदन भुवंगा बैठिया , तऊ सीतलता न तंजत। । 

निहित शब्द – संतई – संत का स्वभाव , कोटिक – हज़ारों , असंत – बुराई का आचरण करने वाले , भुवंगा – सांप , बैठिया – बैठना  , तंजत – तजना।

व्याख्या –  कबीरदास कहते हैं किस संत कभी अपनी स्वभाव  नहीं छोड़ते हैं। चाहे कितने भी प्रकार के कष्ट आए संत का जो आचरण होता है , जो स्वभाव होता  हैं , वह उसको त्यागते नहीं है। जिस प्रकार संत का कार्य है सत्य बोलना , परोपकार की भावना , वह अपने इस कार्य को नहीं छोड़ते।  चंदन का वृक्ष हजारों सांपों से लिपटा रहता है फिर भी वह अपनी सुगंध और शीतलता को नहीं छोड़ता। कितने ही विषधर सांप उसकी पेड़ों को घेरे रहते हैं उससे आच्छादित रहते हैं , मगर जो शीतल चंदन का गुण है वह उस गुण पर कायम रहते हैं।

अर्थात साधु भी उसी प्रकार अपने गुण का त्याग नहीं करते।

 

तीसवां दोहा

 

यह घर है प्रेम का , खाला का घर नाही।

शीश उतार भुई धरों , फिर पैठो घर माहि। । 

निहित शब्द – खाला – मौसी , शीश – सिर , भुई – भूमि , पैठो – जाओ।

व्याख्या  – उपर्युक्त पंक्ति के माध्यम से कबीरदास कहते हैं की भक्ति प्रेम का मार्ग है प्रेम का घर है। भक्ति प्रेम से होती है और ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रेम अति आवश्यक है। यह कोई रिश्तेदार का घर नहीं है कि आप आए और आपको भक्ति और प्रेम मिल जाए।  इसके लिए कठिन तपस्या और साधना की आवश्यकता होती है। इसके लिए सिर झुकाना पड़ता है अर्थात सांसारिक मोह माया को त्यागना पड़ता है और सबको प्रेम भाव से अपनाना पड़ता है। इस प्रेम से ही ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है।

 

इक्कतीसां दोहा

 

राम रसायन प्रेम रस पीवत अधिक रसाल।

कबीर पिवन दुर्लभ है , मांगे शीश कलाल। । 

निहित शब्द – राम – भगवान , रसायन – अभिक्रिया से उत्त्पन्न वैज्ञानिक रस , रसाल – रसीला  , दुर्लभ – जो सरल न हो , कलाल – कटा हुआ।

व्याख्या  –

कबीर कहते हैं राम नाम का जो रस है जो रसायन है।  वह दुर्लभ है वह सभी को नहीं मिलता है।  राम नाम का रस तो उसी को मिलता है जो राम की खोज करता है। इसके लिए अपने शीश को कटवाना पड़ता है। मगर राम नाम का रस जिसको भी मिलता है उसे किसी और चीज़ की आवश्यकता नहीं होती है। इसी बात को कबीर फिर कहते हैं कि राम नाम का रस दुर्लभ है जो कबीर को भी नहीं मिल पाई।

पिने वाले इस रस को रसीला मानते है , इस में मिठास है।

 

बतीसवाँ दोहा

 

अरे इन दोहुन राह ना पाई

हिंदू अपनी करे बड़ाई गागर छुवन देवई

वेश्या के पाँयन तर सोई यह देखो हिन्दुआई। ।

मुसलमान के पीर , औलिया मुर्गी – मुर्गा खाई खाई ,

खाला केरी बेटी ब्याहे , घर ही में करे सगाई। ।

बाहर से एक मुर्दा लाए , धोए – धाए चढ़वाई।

सब सखियां मिली जेवन बैठी , घरभर करे बड़ाई

हिन्दूवन की हिंदूवाई देखी तुरकन की तुरकाई

कहे कबीर सुनो भाई साधु , कौन रहा है जाई। ।

 

निहित शब्द – दोहुन – दो , गागर -घड़ा , पीर – गुरु , औलिया – भक्त , खाला – मौसी , जेवन – भोजन करने।

विशेष – व्यंजना शब्द शक्ति की प्रतीति है।

व्याख्या –

कबीरदास आडम्बर और कर्मकांडों के घोर विरोधी थे। वह कही भी बोलने से डरते नहीं थे वेवाकी से बोलते और विरोध करते थे। इसी कारण उन्हें मारने की नाकाम कोशिस भी की गयी। कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्म में आडम्बर और वैमनष्य का भव देखा और विरोध किया। कवीर हिंदुयों को फटकार लगते है जो अपनी जात को श्रेष्ठ बताते है और सारे दुष्कार्य करते है यह कवीर को नागवार लगता है। ब्राह्मण अपने को सभी से श्रेष्ठ बताते हे और वैश्य के पाँव तले सोते असमाजिक कार्य करते।

जब कोई नीची जाती की परछाई पड जाती तो स्नान करते अपनी गागर छूने नहीं देते यहां तक की अपने कुएं से जल भी नहीं लेने देते।

कबीर मुसलमानों को भी नहीं छोड़ते उनके भी कर्मकांड और पीर , औलिया आदि सभी को अपने विद्रोही स्वर का शिकार बनाते हैं। मुसलमान धर्म , कर्मकांड करते हैं और बाहर से एक मुर्दा लाते हैं। अर्थात मुर्गा , बकरा आदि लाते हैं और उन्हें धो – धाकर बनाते है और चटकारा ले – ले कर खाते हैं। इतना ही नहीं औरतें भी व्यंजन उसका भक्षण करती है और तारीफें करती है। इस प्रकार के कृत्य से कबीर दास दुखी होते हैं और कहते हैं हिंदू लोगों की हिन्दुआई देखी अर्थात उनका बड़बोलापन की सच्चाई देखी और तुर्क अर्थात मुसलमान लोगों की भी तुरकाई देखी।

अब मुझे यह समझ में नहीं आता कि इस प्रकार के लोग किस राह की ओर जा रहे हैं। समाज का क्या होगा बस अपनी धाक जमाने के लिए एक – दूसरे को नीचा साबित करते रहते हैं। एक दूसरे के धर्म को अपने से नीचा बताते रहते हैं इससे कबीरदास बहुत दुखी होते हैं।

तैंतीसवाँ दोहा

कबीर कूता राम का, मुटिया मेरा नाऊ

गले राम की जेवड़ी, जित खींचे तित जाऊं।।

निहित शब्द – मुटिया – नाम मोती , नाऊ – नाम   , जेवड़ी – रस्सी ,फंदा , जित – जिधर , तित – उधर।

व्याख्या – कबीरदास निर्गुण निराकार के उपासक थे। उनके राम दशरथ के पुत्र राम नहीं अपितु वह निर्गुण और निराकार राम थे। वह कभी अपने राम की पत्नी बन जाते , कभी उसके सखा बन जाते , तो कभी कुत्तिया। उनका यह प्रेम और लगाव अपने राम के प्रति था।

कबीर कहते हैं मैं राम का कुत्ता हूं और मोती मेरा नाम है , मैं अपने राम अर्थात मालिक वफादार हूं। जिस प्रकार एक कुत्ता अपने मालिक का वफादार होता है , राम नाम का बंधन मेरे गले में है।

मेरे राम जिधर भी मुझे ले जाते हैं , मैं उधर ही चल देता हूं। जिस प्रकार एक मालिक के लिए उसका वफादार सेवक कुत्ता होता है। ठीक उसी प्रकार कबीर भी अपने राम का वफादार कुत्ता है जिसकी डोर राम के हाथ में है।

चौंतीसवाँ दोहा

कामी क्रोधी लालची ,  इनसे भक्ति ना होए। 
भक्ति करे कोई सूरमा , जाती वरण कुल खोय। । 

निहित शब्द – कामी – वासना से प्रेरित मानव , सुरमा – अनेको में कोई एक विरला , वरन – वर्ण  , कुल – वंश।

व्याख्या – कबीरदास का स्पष्ट मानना है कि , भक्ति प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है। यह कोई दुर्लभ व्यक्ति ही कर सकता है , जिसने जाति , कूल , वर्ण आदि को खोया हो , वही भक्ति का वास्तविक रूप जान सकता है। भक्ति कोई कुत्सित विचार रखने वाला तथा क्रोध करने वाला और लालची व्यक्ति कतई अपने जीवन में नहीं कर सकते हैं।

पैंतीसवां दोहा

बैद मुआ रोगी मुआ , मुआ सकल संसार। 
एक कबीरा ना मुआ , जेहि के राम आधार। ।

निहित शब्द – बैद – वेद  , मुआ – मर जाना (मृत्यु) ,  सकल – सभी  , आधार – सहारा।

व्याख्या – कबीर कहते हैं , समय-समय पर वेद नष्ट हो जाता है , रोगी मर जाता है और यह संसार भी एक दिन खत्म हो जाता है। किंतु जो भक्ति के मार्ग पर निकल जाता है , वह कभी समाप्त नहीं होता। जो राम के संरक्षण में चले जाते हैं , उसका कभी कोई अमंगल नहीं होता। विपत्ति में भी राम की स्नेह रूपी डोर अपने भक्तों से बंधी रहती है।  ऐसे राम का आधार पाकर कोई भी अमंगल कैसे हो सकता है।

More kabir ke dohe with meaning will be available here soon.

 

छतीसवाँ दोहा

जो तोकू कांता बुवाई ताहि बोय तू फूल। 
तोकू फूल के फूल है , बाको है तिरशूल। ।

निहित शब्द – कांता – काँटा , बुवाई – बोना , ताहि – उसको , बाको – उसको।

व्याख्या – 

कबीरदास का मानना है कि जो जैसा करता है , उसको वैसा ही फल मिलता है। अगर कोई अच्छा कर्म करता है तो उसे अच्छा ही प्राप्त होता है और बुरा कर्म करने वाले को बुरा ही प्राप्त होता है।

कबीरदास कहते हैं आप संतो की भांति व्यवहार करें , जिस प्रकार संत बुरा किए जाने पर भी सदैव हंसकर मुस्कुरा कर बात करते हैं। इसलिए संत का कभी अमंगल नहीं होता , वही कुत्सित बुद्धि वाले का कभी मंगल नहीं होता।

सेंतीसवाँ दोहा

फल कारन सेवा करे करे ना मन से काम। 
कहे कबीर सेवक नहीं चाहे चौगुना दाम। ।

निहित शब्द  – कारन – कारण , सेवक – सेवा करने वाला , दाम – मूल्य।

व्याख्या –  इस पंक्ति के माध्यम से यह बताया गया है कि जो सेवक फल की इच्छा रखते हुए सेवा करता है , वह सच्चा सेवक कहलाने योग्य नहीं है।  भले ही उसे कितना भी ऊंचा दाम मिल जाए किंतु वह कभी भी अपने मन से कार्य नहीं कर सकता है। ऐसे सेवकों पर पूर्ण विश्वास नहीं करना चाहिए यह सेवक विश्वासपात्र कभी नहीं बन सकते।

अड़तीसवाँ दोहा

कबीर सतगुर ना मिल्या रही अधूरी सीख। 
स्वांग जाति का पहरी कर घरी घरी मांगे भीख। । 

निहित शब्द  – सतगुरु – सच से परिचय करवाने वाला ,  स्वांग – कुत्ता ,  पहरी – पहरेदारी , घरी – घर।

व्याख्या –  प्रस्तुत पंक्ति में गुरु के महत्व को स्वीकार किया गया है। बिना गुरु के सच्चा ज्ञान नहीं मिल सकता , उसके बिना मिला हुआ ज्ञान अधूरा ही होता है। वह व्यक्ति कभी भी पूर्ण रूप को नहीं जान पाता , अर्थात पूर्ण सत्य को कभी भी नहीं जान पाता। जिस प्रकार कुत्ता दर-बदर भोजन के लिए भटकता रहता है। ठीक इसी प्रकार अधूरा ज्ञान प्राप्त किया हुआ व्यक्ति भटकता फिरता है।  किंतु उसे पूर्ण ज्ञान की कही प्राप्ति नहीं होती।

उन्तालीसवाँ दोहा

गुरु को सर रखिये चलिए आज्ञा माहि। 
कहै कबीर ता दास को तीन लोक भय नाही। । 

निहित शब्द – सर – शीश  , माहि – अनुसार।

व्याख्या – कबीर दास गुरु का विशेष महत्व देते हैं। उनका मानना है कि जो गुरु के बताए हुए मार्ग पर चलता है , वह कभी भी भटकता नहीं है। वह कभी गलत राह को नहीं अपनाता।  तीनो लोक में वह निर्भीक हो जाता है , क्योंकि गुरु कभी गलत रास्ता नहीं बताता।

चालीसवां दोहा

कबीरा गरब ना कीजिये कभू ना हासिये कोय। 
अजहू नाव समुद्र में ना जाने का होए। । 

निहित शब्द – गरब – गर्व  , कभू – कभी ,  हासिये – हँसिये , कोय – कोई , अजहू – अभी।

व्याख्या –  कबीरदास का स्पष्ट मानना है कि किसी भी व्यक्ति पर हंसना नहीं चाहिए। उस व्यक्ति का उपहास नहीं करना चाहिए तथा कमियों पर कभी भी मुस्कुराना और सार्वजनिक नहीं करना चाहिए। आप किसी का हित कर सकते हैं तो , अवश्य करें। किंतु कभी भी हंसने से बचना चाहिए।

समय का फेर है नाव कब समुद्र में डूब जाए , यह कोई नहीं जानता। ठीक इसी प्रकार जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। आज आपका दिन ठीक है , कल कैसा रहेगा यह तो कोई नहीं जानता। इसलिए दूसरे पर हंसी उड़ाने से पहले अपने भविष्य को भी जानना चाहिए। कल आपके साथ कैसी घटना घट जाए या स्वयं आप भी नहीं जान  पाते।

एकतालीसवाँ दोहा

कबीरा लोहा एक है गढ़ने में है फेर। 
ताहि का बख्तर बने ताहि की शमशेर। ।

निहित शब्द – गढ़ने – बनना / आकार देना , बख्तर – रक्षा ढाल , शमशेर – तलवार।

व्याख्या – कबीर दास ने लोहे का सहारा लेते हुए व्यक्ति के चरित्र निर्माण पर दृष्टिपात किया है। उन्होंने बताया है लोहा एक ही प्रकार का होता है।  उसी लोहे से रक्षा करने वाली ढाल अर्थात बख्तर का निर्माण किया जाता है। वहीं दूसरी ओर जीवन हरने वाली तलवार भी बनाई जाती है। दोनों का अपना महत्व है इसके बनाने वाले पर निर्भर करता है कि वह क्या बनाना चाहता है।

ठीक इसी प्रकार व्यक्ति का चरित्र निर्माण भी संभव है। शिक्षक जिस प्रकार अपने शिष्य को तैयार करेगा वह शिष्य भी उसी प्रकार तैयार होगा। कहने का आशय यह है कि व्यक्ति में जिस प्रकार के गुण डाले जाएंगे उसी प्रकार का गुण व्यक्ति में होगा।

बयालीसवाँ दोहा

कुटिल बचन सबसे बुरा जासे होत न हार। 
साधू बचन जल रूप है बरसे अमृत धार। ।

निहित शब्द – कुटिल – कड़वे  , बचन – वचन  ,  जासे – इससे।

व्याख्या – कड़वे वचन बोलने से व्यक्ति का स्वयं नुकसान होता है। कड़वे वचन बोलकर व्यक्ति ना ही किसी को हरा सकता है और ना ही उससे जीत सकता है। किंतु मीठे वचन से सदैव दूसरे को जीता जा सकता है। इसलिए कबीरदास कहते हैं साधु वचन अर्थात मीठे वचन की भांति बोलना चाहिए , जो साफ-सुथरे होते हैं। इस मीठे वचन से अमृत वर्षा अर्थात ज्ञान की वर्षा होती है , जिससे घर परिवार तथा समाज सभी का कल्याण होता है। ऐसी भावना रखकर साधु वचन का ही प्रयोग करना चाहिए।

तेंतालीसवाँ दोहा

सुख सागर का शील है कोई न पावे थाह। 
शब्द बिना साधू नहीं द्रव्य बिना नहीं शाह। । 

निहित शब्द –  शील – स्वभाव , थाह – भेद  , द्रव्य – पूंजी , शाह – राजा।

व्याख्या – कबीर दास का मानना है कि सागर का शांत स्वभाव ही ठीक है , शांत रहते हुए भी कोई इसकी था नहीं ले पाता। साधु के शब्द ही उसे महान बनाते हैं , उसके स्वभाव में कभी उग्रता नहीं देखी जाती। जिस प्रकार सागर शांत रहता है इसीलिए वह विशाल है। ठीक इसी प्रकार बिना पूंजी के अर्थात धन के कोई राजा नहीं बन सकता। यह धन उसके गुण उसके शील स्वभाव ही होते हैं।

चौवालीसवाँ दोहा

प्रेम न बड़ी उपजी प्रेम न हाट बिकाय। 
राजा प्रजा जोही रुचे शीश दी ले जाय। । 

निहित शब्द – उपजी – उपज  , हाट – बाज़ार , रुचे – पसंद आना , दी – देकर।

व्याख्या – कबीरदास जी प्रेम के पुजारी थे , वह भक्ति को भी प्रेम से जोड़कर देखते थे। उनका मानना था कि एक तरफ सभी प्रकार की विद्या प्राप्त की जाए , किंतु प्रेम के बिना वह सब अधूरी है।  पंडित वही व्यक्ति कहलाता है जो प्रेम करना जानता है।

प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से भी उन्होंने प्रेम के महत्व को स्वीकार किया है। उन्होंने कहा है प्रेम कोई उपजाऊ वस्तु नहीं है और ना ही इसे बाजार में खरीद – बिक्री किया जा सकता है। राजा – प्रजा चाहे जो भी हो , इसकी प्राप्ति के लिए अपना शीश अर्थात अपना अभिमान त्याग करना पड़ता है और सर्वस्व न्योछावर करते शालीनता के भाव से इसे ग्रहण करना पड़ता है।

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41 thoughts on “51 कबीर के दोहे अर्थ सहित हिंदी में। Kabir ke dohe in hindi”

    • Thanks vipin. We have written other important stuffs related to it. So do not forget to check them and read them out too.

      Reply
    • Dhanyawad bhaisahab, hum koshish karte hn ki acha se acha content daalein. Aap logon ke in pyar bhare comments se hume motivation milta hai.

      Reply
    • बहुत-बहुत धन्यवाद कॉमेंट के लिए हमने पूरी कोशिश की है कि कबीर के दोहे और उसकी पूरी व्याख्या शब्द अर्थ के साथ डालें आप लोगों को पसंद आ रहा है यह हमारा कार्य में सफल होना दर्शाता है

      Reply
  1. Awesome post. This is the best post on kabir ke dohe. Only you have provided best vyakhya for this dohas. Thank you

    Reply
    • कॉमेंट करने के लिए धन्यवाद हम आगे भी ऐसे ही कंटेंट लाते रहेंगे

      Reply
  2. कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढूंढें बन माहि, मैं कोन सा अलंकार हैं

    Reply
  3. jaise til main tel he , jyon main chakmak, main aag tera sayeen tujh main hai tu jaag sake to jaag

    Reply
    • Thanks for the suggestion shashikant pawar. We will add this to the list of dohas. If you have other questions or suggestions then reply to this .

      Reply
    • Thanks for the appreciation rahul singh. If you have any questions or suggestions then do comment.again.

      Reply
  4. Excellent work!
    There is one Kabir Doha which ends withआप मुआ फिर डूब गई दुनिया
    Do you know the whole Doha? Unable to find anywhere.If you know then will you be kind enough to let me know?
    Thanks

    Reply
    • धन्यवाद

      आपने जो दोहा पूछा है उसकी जानकारी अभी हमारे पास नहीं है किंतु यथाशीघ्र आपके प्रश्नों पर विचार किया जाएगा और जवाब दिया जाएगा

      किंतु इससे संबंधित कबीर दास जी का एक दोहा प्रचलित है जो इस प्रकार है
      “माया मूयी न मन मुआ मरी मरी गया सरीर,
      पाछे लागे हरी फिरे कहे कबीर कबीर।।”

      Reply
  5. pache lage hari fireh kahe kabir kabir ye line nahi h yaha ye line aaye gi guru ji aasha trishna na muhii yuh keah gaya kabir

    Reply
    • We will look into this and will change anything required to be changed in this post.
      However we thank you for pointing out.

      Reply
  6. This is the best post I have read on Kabir ke dohe a topic which is very very helpful for me according to CBSE syllabus. Thank you so much for writing this article

    Reply
    • Nice one. You can suggest more kabir ke dohe by commenting.
      We will add these to our article which will make it more informative.

      Reply
      • मेने आपका यह पोस्ट पढ़ा पढ़कर अच्छा भी लगा मेरा लगभग होमवर्क भी पूरा हो गया बस ये वाला दोहा बता दीजिये – दीपक कुल उजारि ,ab me dono KUL ujyaari. Ye bta do bas

        Reply
    • बिहारी के दोहे जल्द ही उपलब्ध होंगे हमारी वेबसाइट पर

      Reply
  7. तो आपने कबीर के दोहे की व्याख्या करी है वह बहुत ही प्रशंसनीय है और अच्छे तरीके से की गई है. मेरी मदद करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद

    Reply
  8. Woah! I’m stunned… it really helped me…. thank you for this… hats off…
    keep working… looking for more…

    Reply
  9. It’s too good and nice Kabir ke dohe and its explanation or meaning in detail. Thank you so much for providing a detailed version of this topic.

    Reply
  10. कबीर दास के बारे में तो सभी लोग जानते है लेकिन कबीर दास जी के जीवन से सम्बंधित कहानियाँ बहुत ही कम लोग जानते है क्योंकि कबीर दास बहुत ही विचित्र थे और उनके काम भी विचित्र थे इसलिये उनकी कहानियाँ भी विचित्र ही होती है इसलिये उनकी कहानियाँ जाननी चाहिये और अपने जीवन को एक आध्यात्मिक दृष्टि देना चाहिये|

    Reply
  11. Please explain the meaning of this Doha

    Ram naam japiye anni mat gussau
    Pank mein ugohami ahi ke jhabi jhaau

    Reply
  12. कबीर के दोहे समझने में आसान होते हैं परंतु आपने जिस प्रकार से हर एक दोहे को इतने बारीकी से समझाया है अर्थात व्याख्या की है कि अब वह दोहे कभी भूल ही नहीं सकते. बहुत ही अच्छा काम है आपका और इसी प्रकार अन्य लोगों के दोहे को भी समझाइए.

    Reply
  13. पानी गुड़ में डालिए, बीत जाए जब रात।
    सुबह छानकर पीजिए, अच्छे हों हालात।।

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  14. निम्नलिखित पद्यांश की संदर्भ प्रसंग सहित व्याख्या कीजिए
    सतगुरु सांचा सॉरी वाह शब्द जु वाह या एक लागत हो मैं मिल गया पडया कलेजै चेक बलिहारी सतगुरु आपने हांडी के बार जीनी मनीष ते देवता करत न लागी बार।।

    Reply
  15. बहुत ही अच्छी और सपष्ट व्याख्या। बहुत मेहनत के बाद आपका पेज मिला जिसमे ऐसे दोहे मिले जो आम लोगो ने कभी सुने भी नही होंगे ।
    धन्यवाद बहुत ही अच्छा लगा ।

    Reply
    • आपका विचार हमारे लिए बहुत प्रेरणादायक है

      Reply

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